Thursday, 22 July 2010

प्रेम और प्रेम का आवेदनपत्र

We cannot get love n affection ,
By asking for it or sending a petition ,
The only way to get love n affection,
Above the earth n beneath the heaven,
   Is to, without any expectation, from anywhere,
Just disseminate love n affection everywhere.
                                                   -BALMUKUND
                   प्रेम मांगने या प्रेम हेतु आवेदनपत्र लिखने से  प्रेम नहीं मिलता. इस धरती के ऊपर  और आसमान के नीचे  प्रेम पाने का एक ही तरीका है -बिना किसी प्रतिफल की आशा किये सभी जगह , सभी लोगों पर प्रेम बिखेरना , प्रेम फैलाना . 
                    प्रेम मांगने से नहीं मिलता . हाँ, मांगने से सहानुभूति मिल सकती है, दया मिल सकती है,पर प्रेम नहीं मिल सकता. प्रेम का नियम अलग है .प्रेम देने से प्रेम मिलता है.  याचक  की भूमिका प्रेमी को शोभा नहीं देती . आजकल हम देखते हैं की अधिकाँश प्रेमी प्रेमिकाएं याचक की भूमिका में ही दिखाई देते हैं . लेने की इच्छा प्रेमी प्रेमिका दोनों में होती है और देते समय प्रतिफल की आशा बनी रहती है . बल्कि देना प्रतिफल की आशा में ही होता है .बिना प्रतिफल  की  आशा के हम किसी को कुछ दे नहीं  सकते. देते समय भी हमारे मन मे  ये बना रहता है  कि इस देने के बदले  में हमें क्या  मिलेगा? और प्रेम, कम से कम सच्चा  प्रेम तो इस तरह से  नहीं मिल सकता . दो मांगने वाले , दो भिखारी एक दूसरे को संतुष्ट नहीं कर सकते .
                        प्रेम इंसान कि मूलभूत जरूरतों मे से एक है. यदि व्यक्ति को प्रेम न मिले,  तो प्रायः उसका स्वस्थ विकास रुकता है ,कहीं न कहीं वो कुंठाग्रस्त होता है और हीनता कि ग्रंथि से ग्रस्त  हो जाता है .व्यक्ति आत्मदया कि प्रवृत्ति  का शिकार हो  जाता है और खुद पर तरस खाने लगता है .और  ये सत्य है कि खुद पर तरस खाने वाले व्यक्ति को मरने के हजार बहाने मिल जाते हैं .उसी प्रकार जिस  तरह दूसरों पर तरस खाने वाले व्यक्ति को जीने के  हजार बहाने मिल जाते हैं.                                                          
                         प्रायः आत्महत्या करने वाले व्यक्ति हद दर्जे के कायर नहीं होते, वो हद दर्जे के स्वार्थी होते हैं ,आत्मकेंद्रित व्यक्ति होते हैं .यदि वो अपना जरा भी ध्यान अपने तथाकथित दुखों और परेशानियों से हटाकर दूसरों के दुखों और  परेशानियों पर  केन्द्रित कर यथासंभव प्रयास करते हुए उनके दुखों को, परेशानियों को कम कर  पायेंगे, तो निश्चित्त तौर पर अपना भी भला कर पायेंगे और दूसरों का भी .व्यक्ति को अपने जीवन से संतुष्टि तभी मिलती है और जीवन कि अर्थपूर्णता का अहसास तभी हो पाता है जब वो अपने आसपास रहने  वाले  व्यक्तियों की बेहतरी के लिए कुछ कर पाता  है .                                                                                                        
                       तरस खाना चाहे अपने ऊपर हो या किसी और के ऊपर, कोई अच्छी बात नहीं पर खुद पर तरस खाने से ये ज्यादा उचित है कि व्यक्ति दूसरों पर तरस खाए क्यूंकि दूसरों पर तरस खाकर यदि व्यक्ति उनकी बेहतरी के लिए कुछ करता है , तो निस्संदेह उसके स्वयं के जीवन  की दिशा सकारात्मक  होते जाती है . 
                    प्रायः  व्यक्ति से यह गलती होती है कि वो प्रेम पाने का आग्रह करता है और प्रेम आग्रह से नहीं मिलता.और जो आग्रह से मिले ,वो प्रेम नहीं होता,वो या तो सहानुभूति होती है या दया .प्रायः व्यक्ति जो देता है , प्रकृति उसे ही कई गुना कर व्यक्ति को वापस लौटा देती है.   जो व्यक्ति बिना किसी स्वार्थ के सभी को प्रेम देता है,सबकी परवाह करता है, उसे बिना कहे,बिना बोले,बिना आग्रह किये और बिना आवेदनपत्र लिखे बहुत प्रेम मिल जाता है . बिना प्रेम कि मांग किये जो सब के प्रेम के  मांग कि पूर्ति  करता है, उसकी सब मांग स्वयमेव पुरी हो जाती है . प्रेम का यही नियम है कि वो मांगने से नहीं मिलता है , देने से मिलता है .
            इस दुनिया को बेहतर बनाने में प्रेम देने वालों का बेहद योगदान रहा है, प्रेम मांगने वालों का कम . मदर  टेरेसा, महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरु, अब्राहम लिंकन ऐसे ही कुछ नाम हैं जिन्होने बहुत प्रेम दिया और जिन्हे बहुत प्रेम मिला .व्यक्ति को प्रेम मिलना  एक उपलब्धि है,और कहीं न कहीं मुझे लगता है उसके योगदानों का पुरष्कार भी .प्रायः व्यक्ति पैसों के मामले में कंजूस होता है,ठीक है पर प्रेम के मामले मे कंजूसी शोभा नहीं देती.संकीर्ण प्रेम मोह बन जाता है .जो प्रेम रूपी उपहार प्रकृत्ति ने  शायद सभी को बांटने के लिए हमें दिया हो,उसको सिर्फ किसी एक व्यक्ति तक सीमित कर  देना,किसी एक व्यक्ति  को ही दे देना और बाकी लोगों को वंचित कर  देना, मेरे ख्याल से कंजूसी है, संकीर्णता है, मोह है.                
                          व्यक्ति स्वयं को प्राप्त प्रेम रूपी उपहार को सभी को बांटे , तो उसे प्रायः अनपेक्षित रूप से, अनपेक्षित लोगों से,अनपेक्षित स्थानों से इतना प्रेम मिलेगा जो शायद उसने कभी स्वप्न मे भी सोचा न हो .अतः क्यूँ न हम प्रेम पाने के विषय मे सोचने के स्थान पर प्रेम देने के विषय मे सोचें और निश्वार्थ भावना से प्रेम करें  ? क्या यही  हमारे लिए, हमारे अपनों के लिए और वसुधैव कुटुम्बकम कि भावना के साथ बेहतर विश्व के निर्माण के लिए भी उचित  नहीं होगा ?

Monday, 19 July 2010

धर्म व मन की पवित्रता

             जो धर्म मन की पवित्रता का सन्देश न देकर लोगों को एक दूसरे से लडने झगडने के लिए बाध्य करे, उसे धर्म कहना किस हद तक उचित होगा ? संसार के समस्त धर्म , चाहे वह हिन्दू धर्म हो या मुस्लिम धर्म, बौद्ध हो या जैन, सिख हो या इसाई- निर्विवाद रूप से एक ही बात पर जोर देते हैं- वह है मन की पवित्रता . वास्तव मे धर्म व अधर्म की इससे व्यापक और उत्कृष्ट  कौन सी परिभाषा हो सकती है जो तुलसीदास जी ने अपने रामचरितमानस मे दी है  - परहित सरस धर्म नहीं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई . धर्म का मूल ही 'सर्वभूतहित' है और धार्मिक व्यक्ति की पहचान 'सर्वभूतहितेरत'  है .
                      सच कहें तो, मुझे ऐसा लगता है की,  हजारों मे कोई एक ही ऐसा होता है, जो वास्तव मे धर्म को तत्त्व से जानता हो . बाकी लोग तो धर्मांध हैं. कोलंबस जैसे मरते वक्त भी ये नहीं जान पाया था कि उसने भारत नहीं, अमेरिका खोजा है, भारत तो अभी भी बहुत दूर है, उसी प्रकार मरते वक्त भी कई लोगों को ये पता  नहीं चलता होगा की उन्होने अब तक धर्म रूपी भुजंग की केंचुली ही पायी है, धर्म रूपी भुजंग तो अभी भी बहुत दूर है.  यही धर्म की विडम्बना है या कहिये की मानव की विडम्बना है . इस विडम्बना से इंसान निकले तो निकले कैसे?  मुझे लगता है की सबसे उत्तम मार्ग आत्मपरिष्कार ही है. इंसान आत्मपरिष्कार की साधना करे क्यूंकि जब तक व्यक्ति परिष्कृत नहीं होगा, जब तक उसके मन मे काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, ईर्ष्या रूपी दुर्गुण भरा रहेगा, तब तक,  तब तक उसे धर्म के गूढ़ रहस्यों का ज्ञान हो  पाना, एक प्रकार से, असंभव ही है .
                  प्रत्येक धर्म व्यक्ति को यही कहता है की पवित्र करो स्वयं को. इसके अलावा न तो सुख प्राप्त करने का कोई मार्ग है,न धार्मिक सत्य की अनुभूतियों को जान सकने का कोई और मार्ग . पवित्र होने के बाद व्यक्ति को किसी धर्मशास्त्र की आवश्यकता नहीं रह जाती. फिर वह जो कहता है वही धर्मशास्त्र बन जाता है. जो वह करता है वही धर्म बन जाता है. जो वो सुनता है वही भजन  हो जाता  है . व्यक्ति तब ग़जल भी सुनेगा, विरह रस से परिपूर्ण या संयोग रस से युक्त कोई काव्य सुनेगा तो भी उसे यही लगेगा की मै उसी परमात्मा की आराधना कर रहा हूँ .  व्यक्ति को ये महसूस होगा की जिस प्रकार संयोग -वियोग मानवीय प्रेम का लक्षण है , उसी प्रकार का संयोग-वियोग ईश्वरीय प्रेम का लक्षण भी .
                       जब व्यक्ति 'तस्वीर बनाता हूँ , तस्वीर नहीं बनती .... ' सुनता है , तो उसे ऐसा लगेगा की वह भी एक चित्रकार की तरह ईश्वर  रूपी स्वयं के ह्रदय मे विराजमान किसी अन्तशचेतना  की तस्वीर  बनाने की कोशिश कर रहा है, और तस्वीर बन नहीं पा रही है. आज तक कोई परमात्मा की तस्वीर बना सका है भला .. शायद कोई नहीं बना पाया ... शायद सभी लोग बना पाए हैं.  ईश्वर का कोई रूप तो है ही नहीं , उसका रूप कोई बनाएगा क्या ? ईश्वर का कोई रूप ही नहीं, तो कुछ भी बना दो , क्या फर्क पड़ता है, रहेगा तो वो ईश्वर  ही .'' ईश्वर से अलग इस दुनिया मे कुछ भी नहीं. कुछ भी नहीं - जानने वाली बात सिर्फ यही है .
               ईश्वर महासागर है, हम सब महासागर की बूंदें . यदि बूंद महासागर को जानने की कोशिश करेगी , उसके ओर-छोर को जानने की कोशिश करेगी तो असफल ही होगी. इसमे संदेह का प्रश्न ही क्या है ? पर जब वही बूँद स्वयं को जान लेती है, तो वो, एक प्रकार से, महासागर को जान लेती है. जैसे एक बूँद , वैसी  ही महासागर की सभी बूंदे.  इसलिए यदि ईश्वर  को जानना हो तो स्वयं को जानना जरुरी है. जिस दिन पानी की बूँद खुद को जान जाएगी, उस दिन वो महासागर को भी जान जायेगी क्यूंकि जो एक पिंड मे है वही ब्रह्माण्ड मे है .
                            मुझे लगता है की कण कण मे भगवान  नहीं, कण-कण ही भगवान है . हमने किसी जड़ की उपासना कभी नहीं की. जब उपासना की है तो चेतन की. हम जब कण कण मे भगवान् के अस्तित्व की बात करते हैं तो उस ईश्वर रूपी चेतना के  ही समस्त ओर  व्याप्त होने की बात करते हैं. वास्तव मे जड़ और चेतन का कोई भेद नहीं है. मै जहां खड़ा हूँ , वहां से मुझे समस्त वस्तुएं चेतन ही नजर आ रही हैं, चेतना के स्तर भले ही भिन्न भिन्न हो .
                     पंथ और धर्म के नाम पर वही लड़ सकता है जिसने सत्य का साक्षात्कार नहीं किया हो, जो मंजिल तक नहीं पहुंचा हो . . मंजिल पर पहुंचे व्यक्ति को पंथों से या धर्मों से अधिक मतलब नहीं रह जाता है . मंजिल पर पहुँचने के बाद रास्तों की अहमियत ही कितनी होती है ? हाँ , तब वह उन लोगों को जो अभी भी रास्ते मे हैं, उन्हे मंजिल पर लाने का कार्य कर सकता है. जो पिरामिड के शीर्ष पर है, उसके लिए शीर्ष पर पहुँचने के सभी रास्ते बराबर हैं. वो जानता है  की प्रत्येक रास्ता शीर्ष पर पहुंचता है. कोलंबस जब पश्चिम की दिशा से बढते हुए भारत पहुंचना चाहता था तो क्या उसकी दिशा गलत थी ? नहीं , वह पश्चिम की दिशा से भी भारत पहुँच सकता था. हम नहीं कह सकते की उसकी दिशा गलत थी.  धर्म के क्षेत्र मे भी ये कहना  की  किसी धर्म की दिशा गलत है और वह  ईश्वर  तक नहीं पहुंचाएगा, ओछी बात है .
                           क्राइस्ट, गुरु नानक, कबीर, बुद्ध, कृष्ण कौन थे ? ये वो लोग थे जो संसार रूपी पिरामिड  के ईश्वर रूपी शीर्ष तक पहुँच चुके थे. यही कारण है की उन्होने कभी भी अधर्म का, घृणा का प्रचार नहीं किया, सर्वत्र प्रेम का ही प्रचार किया. धर्म चाहे हिन्दू धर्म हो,इसाई धर्म हो या दुनिया का कोई भी धर्म क्यूँ न हो, है तो वह वास्तव मे ईश्वर  तक पहुँचने का रास्ता ही. धर्म ईश्वर नहीं है, धर्म ईश्वर तक पहुँचने का रास्ता मात्र है . मेरा रास्ता तुम्हारे रास्ते से अच्छा  है , ये कहना कोई बहुत अच्छी बात नहीं. जापान और इंग्लैंड -दोनों देशों के व्यक्ति यदि भारत पहुंचना चाहेंगे तो क्या आप एक ही दिशा बताएँगे ? नहीं, आप तो जानते हैं की भारत पहुँचने के लिए इंग्लैंड वालों के लिए निकटतम रास्ता पूर्व को जाता है और जापान वालों के लिए पश्चिम की और . धर्म वही निकटतम रास्ता है और जरुरी नहीं की वह सबके लिए सामान हो .
              एक समानता जो मुझे अनेक धर्मो मे मिलती है, वह है ईश्वर  को पाने हेतु पात्रता विकसित करने की बात, स्वयं को पवित्र बनाने वाली बात. काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, इर्ष्या आदि का परिष्कार  करने की बात   .ईश्वरः सर्वभूतानाम हृददेशेअर्जुन तिष्ठति. इस सत्य का साक्षात्कार वही कर सकता है जो पवित्र है. समस्त धर्म यही कहते हैं की स्वयं को पवित्र बनाओ,अपनी बुराइयों  से संघर्ष करो. और जब तुम ऐसा कर लोगे और अपनी बुराइयों  को अपेक्षित मात्रा मे दूर करने मे सफल होगे, तब ईश्वर तुम्हारे मन मंदिर मे प्रवेश करेगा . और तब सभी पंथ, सभी धर्म एक हो जायेंगे  . जब हम ईश्वर रूपी केंद्र से दूर होते हैं, तो धर्म रूपी त्रिज्याओं के मध्य भी दूरियां अधिक होती हैं. जैसे जैसे  हम केंद्र के नजदीक पहुँचते हैं, दूरियां स्वयमेव कम होने लगती हैं, और जब हम केंद्र पर पहुँचते हैं, तो सभी त्रिज्याएँ, सभी पंथ , सभी धर्म एक हो जाते हैं .
                      ईश्वर के मन मंदिर मे प्रवेश हेतु मन की निर्मलता आवश्यक है . शायद इसीलिए कहा गया है , ' निर्मल मन जन सो मोहि पावा , मोहि कपट छल छिद्र न भावा'. अतः  ये उचित होगा की हम धर्म के स्वरुप  को समझें ,स्वपरिष्करण  ओर  सर्वभूतहित पर ध्यान दें , न की धर्म का उपयोग आपस मे झगडे बढाने, वैमनस्य उत्पन्न करने व घृणा फैलाने मे .

Wednesday, 14 July 2010

प्रेम और प्रेम का विज्ञापन

                      प्रेम - इस ढाई अक्षर के शब्द के बिना जीवन का शब्दकोष कितना अधूरा  हो जाएगा ? इंसान के पास सब कुछ हो, लेकिन प्रेम न हो, तो उसे जीवन मे कहीं भी रस की प्राप्ति नहीं हो सकती- और नीरस जीवन भी कोई जीवन है. प्रेम विधाता की उत्कृष्टतम विधि है और मनुष्य की अमूल्यतम  निधि. मनुष्य के सम्पूर्ण और समन्वित  विकास हेतु प्रेम अतिआवश्यक तत्त्व है. प्रेम बिना सब कुछ सूना-सूना है.
                 प्रेम कहीं न कहीं भौतिक नियमों से परे प्रतीत होता  है . प्रेम के आकर्षण को भौतिकी के सिद्धांतों  से कोई कैसे  समझाये ?. माँ और बच्चों  का एक दूसरे के प्रति आकर्षण , पति-पत्नी का आकर्षण, मित्रों के मध्य आकर्षण - ये गुरुत्व के कारण तो होता नहीं है . होता है ये ममत्व के कारण , अपनत्व के कारण .
                  लोग कहते हैं की प्यार के विज्ञापन की आवश्यकता नहीं .''प्यार कोई बोल नहीं, प्यार आवाज नहीं, एक खामोशी है जो सुनती  है कहा करती है''.  हाँ, प्रेम जब परिपक्व हो गया हो , तो कहने सुनने की अधिक आवश्यकता नहीं , पर प्रेम जब अपरिपक्व हो या शुरूआती  दौर मे हो- तब तो कहने सुनने की कुछ न कुछ आवश्यकता रहती ही है . प्रायः देखा जाता है की मौन प्रेम को समझ पाने की क्षमता प्रत्येक व्यक्ति मे नहीं होती . सिर्फ परिपक्व व्यक्ति ही किसी व्यक्ति के मौन प्रेम को समझ सकने की क्षमता रखता  है . हाँ, मुखर प्रेम को समझने मे बहुत कम व्यक्तियों को कठिनाई हो सकती है ,क्यूंकि मुखर प्रेम विज्ञापित प्रेम है . मैने महसूस किया है की मन मे किसी व्यक्ति के प्रति प्रेम होना ही आवश्यक नहीं है, बल्कि आपका प्रेम उस व्यक्ति तक संप्रेषित हो सके, ये भी आवश्यक है . वास्तव मे प्रेम के अभाव से भी ज्यादा मुझे ये महसूस होता है की ''प्रेम होते हुए भी प्रेम के प्रभावी  सम्प्रेषण का अभाव''  दैनंदिन जीवन मे विभिन्न प्रकार की समस्यायों को जन्म देता है . 
              प्रायः देखा गया है की माँ -बाप अपने बच्चों से प्रेम तो करते हैं, पर बच्चों तक प्रेम का प्रभावी सम्प्रेषण न हो पाने के कारण बच्चे  ये समझते हैं की माँ बाप उनसे प्रेम नहीं करते. माँ-बाप के मन मे अपने प्रति प्रेम को लेकर बच्चों के मन मे एक किस्म का संदेह उत्पन्न हो  जाता है जो मुझे नहीं लगता की बच्चों के  स्वस्थ विकास के लिए उचित  है . कई बार पति-पत्नी के मध्य प्रेम के सुचारू सम्प्रेषण का अभाव दाम्पत्य जीवन मे अनेक प्रकार की व्यवहारिक दिक्कतों  को जन्म देता है .
                    मेरा कहना ये है की यदि आप किसी को प्रेम करते हैं तो उस व्यक्ति को ये महसूस  होना चाहिए  की आप उसे प्रेम करते है. ये उस व्यक्ति के स्वस्थ विकास के लिए भी आवश्यक है और और आपकी  संतुष्टि, ख़ुशी  और स्वविकास  के लिए भी. जहां  आपका प्रेम, आपकी परवाह , आपके दो मीठे शब्द  किसी व्यक्ति के जीवन को सकारात्मक दिशा प्रदान कर सकती है, वहीँ आपकी उपेक्षा भी शायद किसी व्यक्ति के जीवन को  पूर्णतः नकारात्मक दिशा मे धकेल सकती  है .
                      नदी मे बहुत अधिक मात्रा मे जल उपलब्ध होने और बादलों मे पर्याप्त मात्रा मे पानी होने मात्र से  ये जरूरी नहीं की खेत मे अच्छी फसल हो जाए . फसल तो तभी अच्छी होगी जब नदी का पानी नहरों के माध्यम से या बादलों का जल वर्षा  के  माध्यम से प्यासी धरती की प्यास बुझायेगा . प्रायः नदी मे बहुत पानी होता है, बादल भी पानी से भरे होते हैं फिर भी धरती प्यासी रह जाती है और पौधे सुख जाते हैं क्यूंकि नहर बन नहीं पाती , वर्षा हो नहीं पाती . प्रेम मन का मन ही मे रह जाता है , संप्रेषित हो नहीं पाता ,  ह्रदय सूखे रह जाते हैं और  ह्रदय के उद्यान मे जो पौधा पल्लवित हो सकता था , जो फूल खिल सकता था वो खिल नहीं पाता. ह्रदय का उद्यान मरुभूमि मे तब्दील हो जाता है . फिर नदी मे पानी रहने , बादलों  मे  पानी  भरे रहने और मन मे प्रेम होने बस  से क्या फायदा?  
                    व्यक्ति भी एक ऐसा पौधा है जो प्यार की खाद पर पलता है और बड़ा होता है . प्यार न मिले तो मुरझाने और कुम्हलाने लगता है .प्रेम करने के साथ साथ व्यक्ति  को प्रेम प्रदर्शित करने, प्रेम को विज्ञापित करने की कला मे भी माहिर होना  चाहिए. प्रेम विज्ञापित करना भी एक कला है, जो मुझे लगता है की सीखने योग्य है .
                    प्रायः देखा जाता है की अधिकतर अपरिपक्व और कई  बार तो तथाकथित परिपक्व व्यक्ति भी मन मे छद्म प्रेम रखने वाले किन्तु बेहतर ढंग से अपने प्रेम को विज्ञप्त करने वाले व्यक्ति के प्रभाव मे आसानी से आ जाते हैं जबकि मन मे सच्चा प्रेम रखने वाले परन्तु प्रेम को विज्ञप्त न कर पाने वाले व्यक्ति उपेक्षित हो जाते है  'छुपाना भी नहीं आता ,बताना  भी नहीं आता, हमें तुम से मुहब्बत है, जताना भी नहीं आता'' कहने बस से  कुछ नहीं होता, आपको मुहब्बत बताने और जताने की कला मे भी निपुण होना चाहिए .  छोटे बच्चों को तो प्रेम के विज्ञापन की आवश्यकता होती ही है, इसके बिना उनका काम नहीं चल सकता . बड़े बच्चों को भी इसकी कम आवश्यकता नहीं होती . अतः  व्यक्ति को सच्चा प्रेम करने के साथ साथ  आवश्यकता देखकर उस सच्चे प्रेम का विज्ञापन भी करना आना चाहिए.
                       वैसे ये भी सत्य है की प्रेम छुपाये नहीं छुपता. परन्तु प्रेम को  छुपाने की कोशिश करने से मुझे लगता है गलतफहमियां पैदा होती हैं जिसमे  लाभ की जगह हानि की संभावना ही अधिक प्रतीत होती  है. अतः ये उचित प्रतीत होता है की व्यक्ति अपने सच्चे प्रेम को जताने के तरीके सीखे. प्रेम करना सीखे और प्रेम का विज्ञापन करना भी .शायद ये व्यवहारिक भी है , उचित भी और बेहतर संबंधों के साथ साथ बेहतर समाज और बेहतर विश्व के निर्माण  मे सहायक भी.

Sunday, 4 July 2010

अज्ञानता का दर्शन और अनंत ज्ञान

               'यदि' संपूर्ण ज्ञान को नीली व्हेल  मछली मानें ,तो मेरा ज्ञान उसके मुकाबले आज अमीबा जितना ही बड़ा है और मै अपने जीवनकाल मे लाख कोशिश कर लूँ, मेरा ज्ञान अपने जीवन के अंत मे  शायद चींटी जितना ही बड़ा हो पायेगा, उससे बड़ा नहीं.
                  शायद यही अज्ञानता का दर्शन ही इंसान को दार्शनिक बनाता है.  इंसान  अपने ''सीमित ज्ञान'' के जरिये ''अनंत ज्ञान'',  ईश्वर, प्रकृति को समझने कि कोशिश करता है और कभी पूरी तरह  समझ नहीं पाता,  न शायद  कभी समझ पायेगा.  हम अंश  हैं,  प्रकृति पूर्ण  है  और कोई अंश  अपने  पूर्ण  को जिसका वह अंश  है,  पूर्ण रूप मे समझ सकने  मे सक्षम होगा, इसमे  मुझे संदेह  है.  जब कोई अंश, कोई व्यक्ति,  ये दावा करे कि मैने पूर्ण को पूरी तरह से समझ लिया है, तो ऐसा सोचना उस इंसान कि अल्पज्ञता ही होगी. व्यक्ति को  ये कहना ही पड़ता है कि मै पूर्ण को पूरी तौर पर पर नहीं जानता, क्योंकि मै भी पूर्ण का ही अंश हूँ , उसका एक छोटा सा हिस्सा हूँ, पूर्ण को तो पूरी तरह कभी  देखा नहीं, अपूर्ण को ही देखा है, इसलिए मै पूर्ण को पूरी तरह कैसे जान सकता हूँ? सब कुछ मै नहीं जान सकता और सब कुछ जानना  मेरे लिए असंभव है. शायद यहीं से अज्ञेयवाद का जन्म होता होता है .
                व्यक्ति अपनी चेतना के द्वारा प्रकृति को जिस हद तक  जान पाता है, जितना समझ पाता है,  उसी आधार पर  प्रकृति के  ऊपर टिप्पणी करता है .व्यक्ति की चेतनाशक्ति  प्रकृति  की सम्पूर्णता का जो अंश देख पाती  है, जिस रूप मे देख पाती है, और देखने के बाद जो निष्कर्ष निकाल पाती है,  उन निष्कर्षों  का व्यक्ति के दृष्टिकोण  के निर्माण मे महत्वपूर्ण  भूमिका होती है.
                      मुझे ऐसा प्रतीत होता है की व्यक्ति रूपी अंश के द्वारा अपनी सीमित  चेतनाशक्ति के माध्यम से इश्वर-प्रकृति-सृष्टि रूपी पूर्ण को समझने के प्रयास से ही विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं का उदय होता है. विभिन्न  मतों और दार्शनिक  विचारधाराओं के मध्य विरोधाभासों का भी शायद यही कारण है . दर्शनशास्त्र मे आस्तिक दर्शन भी हैं व नास्तिक दर्शन भी . कोई कहता है की इसी जन्म मे व्यक्ति को परलोक जाने के लिए तैयारी   करनी चाहिए, तो कोई कहता है की ''यावत् जीवेत सुखं जीवेत, ऋणं कृत्वा घृतं  पिबेत, भस्मीभूतस्य  देहस्य पुनरागमनं  कुतः'' . कोई कहता है  वह मानवीय ज्ञान से परे है, कोई इश्वर को तर्क से ढूँढने   की कोशिश करता है . क्या ऐसा नहीं लगता की चार अंधे किसी हाथी के अलग अलग अंगों को छूकर ये बताने की कोशिश कर रहे हैं की हाथी तो खम्भे की तरह है, हाथी तो रस्सी की तरह है, हाथी तो दीवाल की तरह है या हाथी तो सांप की तरह है.  सत्य किसको मालुम है, किसी को भी नहीं. सभी आब्जेकटिवली  गलत हैं, सब्जेक्टिवली सही हैं . अंधों ने अपने स्पर्श की चेतना के द्वारा जो महसूस किया, उसे दुनिया के समक्ष रख दिया.  क्या अंधे सच बोल रहे हैं , क्या अंधे झूठ बोल रहे हैं ? क्या अंधे गलत हैं, क्या अंधे सही हैं ? यदि अंधे गलत हैं, तो क्यूँ है, अंधे सही हैं तो क्यूँ हैं?
              मुझे  कहीं न कहीं ऐसा प्रतीत होता है की    समस्त दर्शन एकांगी हैं और यदि एकांगी नहीं हैं तो अस्पष्ट  हैं .जैन दर्शन एकांगी है क्यूंकि  वह अहिंसा पर इतना अधिक बल देता है की कहीं न कहीं वह अव्यवहारिक हो जाता है . बौद्ध   दर्शन दुखों का दर्शन है . संपूर्ण बौद्ध दर्शन कहीं न कहीं इस संसार मे दुःख ही दुःख है और इस से बचने का मार्ग क्या है, ये ढूँढने  मे  लगा रहता है.  प्रायः हिन्दू दर्शन क्या यही नहीं कहता की जन्म मरण के फेर से बचने हेतु इंसान को मोक्ष प्राप्त करने की कोशिश करनी चाहिए. मोक्ष प्राप्त करने की कोशिश क्यूँ की जाए? इसीलिए ना की जन्म मरण के फेर से बचा जा सके या भवसागर, जिसे हम दुःख का सागर कहते हैं, वहां  फिर  गोता लगाने के लिए न आना पडे.  जैन दर्शन जब स्यादवाद( शायद है भी, नहीं भी ) की बात करता है , तो क्या वो अस्पष्ट नहीं हो जाता  ? क्या वह एकांगी न होने की कोशिश करते हुए   अस्पष्ट  नहीं हो जाता है ... यह   भी है, वह  भी है, तो क्या नहीं है? यह   भी नहीं है, वह  भी नहीं है तो क्या है ?
                    मुझे  लगता है की   कई बार जब इंसान कमजोर होता है  या जब उसके पास बहुत वक्त होता है, तो वो दर्शन मे अपनी कमजोरियों का जवाब ढूँढता  है, अस्पष्ट  विचारों मे  सहारा ढूँढने  की कोशिश करता है ,कुछ प्रश्नों के स्पष्ट उत्तर ढूँढने  की कोशिश करता है, (अपनी ज्ञानेन्द्रियों के सहारे, जैसे अंधे हाथी को स्पर्श करके जानने समझने की कोशिश करते हैं)  और स्पष्ट उत्तर  उसे  मिल नहीं पाते, न कभी मिल पायेंगे.  व्यक्ति की प्रकृति के ऊपर  टिप्पणियां सदैव प्रारंभिक  सर्वे पर ही आधारित होती है, अंतिम सर्वे तो वो कभी भी नहीं कर पाता. इस दुनिया मे अंतिम कुछ भी नहीं होता, सब  कुछ अनंतिम  होता है  . इसलिए मेरी ये टिप्पणियां भी   अब तक के प्रारंभिक सर्वे पर ही  आधारित है, सम्पूर्णता ( प्रकृति ) के जिस अंश को जैसा देखा है, जाना है, समझा है, उसी आधार पर मेरी टिप्पणियां हैं.  सर्वे  जारी है .
                    बहरहाल, यदि हम ये जानते हों   की हम अज्ञानी हैं, और उस अज्ञान को दूर करने की दिशा मे कदम बढाते  हैं, तो शायद हमसे बड़ा ज्ञानी  कोई  नहीं है. ज्ञानी  हमेशा जानते रहता है की वो 'बहुत  कुछ' नहीं जानता, वो लाख कोशिश कर ले, 'सब कुछ' नहीं जान  पायेगा क्यूंकि सब कुछ तो अनंत है, और जो  कुछ वो जान लेता है, वही और वहीँ उसका अंत है. अपनी अज्ञानता का ज्ञान व्यक्ति को कट्टरपंथी बनने से रोकता है . अज्ञानी व्यक्ति जानता है की 'प्रकृति तो अगाध है, असीम है, उसकी न कोई सीमा है. जिसको कहते हैं क्षितिज, वह हमारे ही वीक्षण की सीमा है.' अपनी अज्ञानता का ज्ञान व्यक्ति को विनम्र बनाता है और इमानदारी से, पूरी निष्पक्षता से किसी भी प्रकार के पूर्वाग्रह से दूर रहकर सत्य  की खोज करने के लिए प्रेरित करता है.
                  आइये, हम भी उस अनंत ज्ञान के समक्ष अपनी अज्ञानता को ध्यान मे रखते हुए, अपनी सीमित चेतना के माध्यम से, विनम्रतापूर्वक , निष्पक्षतापूर्वक  व किसी भी प्रकार के पूर्वाग्रह से मुक्त होकर सत्य की खोज करें क्यूंकि  क्या पता कब प्रकृति हमें  अपना कौन सा नया रूप दिखाए, कब कौन सा नया ज्ञान दे और अपने रहस्य के ऊपर से कब कौन सा नया पर्दा उठा  दे- ये तो, बेशक, प्रकृति ही बेहतर जानती है.

Tuesday, 29 June 2010

तर्क, भावना और विवेक

                        प्रायः यह देखा जाता है कि इंसान अपनी भावनाओं के द्वारा किसी नतीजे  तक पहुँचता है और तर्क के द्वारा, एक वकील कि तरह, उस नतीजे  या निर्णय को सही सिद्ध करने की कोशिश करता है. इंसान के द्वारा किया गया तर्क उसका सही परिचय नहीं देता, बल्कि उसकी भावनाएं उसका सही परिचय देती हैं. अच्छी भावनाएं  अच्छे इंसान होने  का परिचायक है, परन्तु अच्छा तर्क करना  एक अच्छे इंसान होने का शायद ही स्पष्ट परिचायक  हो. किसी का तर्क  हमें प्रभावित जरूर कर सकता है, लेकिन  हमारे  दिलों  को नहीं छू सकता. हाँ, किसी कि अच्छी भावनाएं जरूर हमारे  दिल को छू जाती हैं.  वैसे तर्क और भावना एक दूसरे कि पूरक होती हैं . यदि सही भावना मे सही तर्क न हो, तो इंसान भावनाओं कि बाढ़ मे बहते बहते किसी ऐसे भंवर कि और चला जाता है जहाँ पर डूबना ही उसकी नियति बन जाती है  और यदि सही तर्क मे सही भावना न हो, तो भी इंसान सिर्फ अपनी ख़ुशी और अपने सुख के लिए किसी ऐसे रास्ते कि और चल पड़ता है,  जहाँ अंत मे ग्लानि  और पछतावे के सिवा कुछ  नहीं रहता है .
                        मैंने अक्सर 'तर्क , भावना और विवेक' शब्दों का प्रयोग किया है.  क्या फर्क है तर्क और भावना मे ? क्यूँ मैंने कहा है कि तर्क और भावनाएं एक दूसरे कि पूरक है?  इसलिए क्यूंकि दोनों के बिना काम नहीं चल सकता. प्रकृति ने मनुष्य को तर्क करने कि क्षमता भी दी है और भावुक होने  कि विशेषता भी . तर्क करना दिमाग का काम है और भावुक होना दिल का. एक छोटे से बच्चे को देखकर, उसकी मुस्कुराहट और उछलकूद देखकर किसी भी इंसान के मन मे जो ख़ुशी  उत्पन्न  होती है, उसको तर्क से कौन समझा सकता है?  किसी दुखी इंसान को देखकर के मन मे जो करुणा  उत्पन्न होती है, कोई तर्क से उसे समझाने कि कोशिश करे , शायद नहीं समझा पायेगा . अपनी जन्मभूमि से लगाव  कि भावना, माँ का बच्चे के प्रति वात्सल्य, मीरा का कृष्ण को पति मानने कि भावना, रिश्तों को रिश्ता मानने कि भावना, प्रेम, घृणा, पूर्वाग्रह कि भावना, अपने को उच्च समझने कि भावना, स्वयं को निम्न समझने कि भावना ... भावना मे इंसान साबित नहीं करता, वह महसूस करता है. तर्क मे इंसान साबित करता है, महसूस कम.  क्रौंच पक्षी को मरते देखकर आदिकवि वाल्मीकि के मन मे जो करुणा और व्यथा उत्पन्न हुई होगी, उसे कौन किसी दुसरे इंसान को 'समझा' सकता है?  'म़ा  निषाद प्रतिष्ठाम  त्वमगमः ' कहते हुए उनके मन मे व्याध के लिए उत्पन्न क्रोध की भावना को तर्क से कौन समझाए?  ये महसूस करने वाली बातें हैं,  साबित करने वाली कम. 'वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान'. उस वियोगी कवि के मन मे उठने वाली भावना को हम भावना से ही महसूस कर सकते हैं, तर्क के माध्यम से नहीं. इंसान को सम्मान और प्यार मिलता है तो उसकी अच्छी भावनाओं के कारण. इंसान को नफरत और हिकारत  मिलती है, तो उसकी बुरी भावनाओं के कारण.  भावना और तर्क मे भावना का महत्व प्रथम है, तर्क का काम तो भावना के बाद होता है .
                             पर क्या भावना ही सब कुछ है ?  भावना तो पशुओं मे भी होती है. उनका भी समाज होता है. तो फिर इंसान और पशु मे फर्क कहाँ पैदा होता है ?  पैदा होता है इंसान कि तर्क करने कि विशिष्ट क्षमता के विकसित  होने के कारण.  तर्क एक ऐसी क्षमता है जो साबित करती है . तर्क करना दिमाग का काम है , दिल का नहीं.  तर्क फायदे या नुकसान के विषय मे सोचता है, भावना फायदा या नुकसान  नहीं देखती है और देखती है तो शायद वो भावना नहीं है, वो कहीं न कहीं तर्क है.  प्रायः भावना ही  लक्ष्य का निर्धारण करती है और  तर्क उस तक पहुँचने का मार्ग  तलाशता   है. भावना द्वारा निर्धारित लक्ष्य को किस मार्ग से किस तरह प्राप्त किया जाए, ये तर्क ही बताता है. दो इंसानों के मन मे देशप्रेम कि भावना जगी, दोनों ने अपने अपने तर्क का सहारा लिया, तर्क ने उन्हे रास्ता दिखाया, उनकी मदद की और कोई भगत सिंह बन गया और कोई महात्मा गाँधी.  जिसके तर्क ने जिसको जैसा रास्ता दिखाया, वो वैसा ही बन गया. इसके पीछे मूल  प्रेरणा भावना थी, तर्कों का अलग अलग होना या यूँ कह लीजिये कि रास्तों का अलग होना ही ने किसी को कुछ और किसी को कुछ बना दिया. रास्तों के अलग-अलग होने, अहिंसा या हिंसा का अलग अलग माध्यम किसी सामान उद्देश्य कि प्राप्ति हेतु अपनाने के बावजूद यदि हम भगत सिंह  और महात्मा गाँधी को सम्मान और प्यार देते हैं, तो सिर्फ इस कारण क्योंकि दोनों कि भावनाएं अच्छी थी. अच्छी भावनाएं, हाँ, सिर्फ अच्छी भावनाएं अच्छे इंसान का परिचायक होती हैं. तर्क तो आप जैसा चाहे, आपकी भावना आपसे करा लेगी. जिस तरह से मुवक्किल को वकील कि जरुरत रहती है, अपने पक्ष को सही साबित करने के लिए, उसी तरह से भावना को तर्क कि आवश्यकता होती है, स्वयं को आधार देने और सही साबित करने के लिए.  इसलिए दोनों एक दूसरे की  पूरक हैं .
                              अब आते हैं विवेक पर. विवेक तर्क और भावना को नियंत्रित  करने वाली सत्ता है. विवेक भावना और तर्क को संतुलन मे रखने का कार्य करता है. कब भावना का इस्तेमाल करना है और कब तर्क का- ये विवेक बतलाता है. विवेक कर्त्तव्य  का ज्ञान  कराता है. सही या गलत तर्क या भावना को विवेक परखता  है. जब तर्क आउट ऑफ़ कण्ट्रोल हो तो तर्क पर भावना का ब्रेक  लगता है और जब भावना आउट ऑफ़ कण्ट्रोल हो तो उस पर  तर्क का ब्रेक  लगता है. ब्रेक  लगाने का काम विवेक करता है. विवेक तर्क और भावना के मध्य सामंजस्य स्थापित करता है. सामंजस्य ब्रेक  लगाकर ही करता है. मेरी भावुकता कहीं मुझे बहाकर न ले जाए, इसलिए तर्क का ब्रेक  लगाना पड़ता है  और तर्क करते हुए मै स्वार्थी न हो जाऊं इसलिए भावना का ब्रेक लगाना पड़ता है ,.
                     शायद इसीलिए ये भी कहा जाता है कि '' जब नाश मनुज पर छाता है, सबसे पहले विवेक मर जाता है''. विवेक ख़त्म होने पर व्यक्ति का मानसिक संतुलन ख़त्म हो जाता है क्यूंकि उसकी या तो भावना अनियंत्रित हो जाती हैं या फिर तर्क.  जब तर्क और भावना  के मध्य अंतर्विरोध हो, तो निर्णय करने का, सामंजस्य स्थापित करने का काम विवेक ही करता है.  विवेक तत्कालीन परिस्थितियों मे सदैव  यथासंभव सर्वोत्तम, आवश्यक, उचित और  सबकी बेहतरी का मार्ग  तलाशता है.  चूँकि विवेक ही कर्त्तव्य का ज्ञान कराता  है, शायद इसीलिए  ये कहा जाता है कि व्यक्ति  को सदैव  अपने विवेक से कार्य  करना चाहिए.
                     अस्तु,  ये उचित प्रतीत होता है की व्यक्ति सदैव अपने इश्वर प्रदत्त  विवेक से अपने ''कर्त्तव्य अर्थात किये जाने चाहिए योग्य कर्म''  का निर्धारण करे व तदनुरूप अपने कर्तव्यों का निर्वहन करे .

Monday, 28 June 2010

जीना सिर्फ किसके लिए

                  अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए जियो- जरा इस सिद्धांत के विषय मे सोचते हैं.  क्या कोई ऐसा व्यक्ति हो सकता है जो सिर्फ अपने लिए ही जीता हो ? क्या सिर्फ   अपने लिए जीना निरपेक्ष रूप से संभव है ?
                 हम सब सृष्टि के अंग हैं. समस्त सृष्टि ,जिसे हम ब्रह्माण्ड का नाम दे सकते  हैं, के विभिन्न अवयव एक दुसरे से जुडे हुए हैं .हम हिमालय पर्वत की घाटी मे रहकर भी किसी मंत्र का उच्चारण करें या किसी अपशब्द का , वही   शब्द, वही   उच्चारण वापस लौटकर हमारे पास  प्रतिध्वनि के रूप मे पहुँचती है . वो आवाज एक तरंग बनकर जाने कहाँ-कहाँ तक पहुँच जाती होगी और न जाने कितनों पर प्रभाव डालती होगी. हम सब के तार एक दुसरे से जुड़े हुए हैं.  सृष्टि ने, प्रकृति ने हमारी सीमायें नियत कर रखी हैं. हम सिर्फ और सिर्फ अपने लिए कुछ नहीं कर सकते क्योंकि  जो कुछ भी हम करते हैं, उसके प्रभाव को हम पूर्ण रूप से नियंत्रित नहीं कर सकते. जरुरी नहीं की हम जो कुछ करते हैं, उसका प्रभाव सिर्फ हम पर पडे. उसका प्रभाव कहीं न कहीं दूसरों पर पड़ता ही है. लोग सिगरेट पीते हैं, उसका दुष्प्रभाव उन पर तो पड़ता ही है, साथ ही साथ निकट बैठे लोग भी उस से प्रभावित होते हैं. किसी फैक्ट्री से कोई जहरीली गैस का रिसाव होता है  और हजारों लोग प्रभावित होते हैं. तो क्या इस से ये साबित नहीं होता की कोई कर्म ऐसा नहीं है जो सिर्फ और सिर्फ स्वयं के लिए हो या सिर्फ और सिर्फ  दूसरों के लिए.  प्रभाव तो समष्टि पर पड़ता है, प्रभाव एक व्यक्ति तक सीमित  नहीं रहता .
                  यहाँ यह भी ध्यान रखना जरुरी है की हम जो करते हैं,  उसका प्रभाव सिर्फ हमारे अपने लोगों या अपनी पीढ़ी तक ही सीमित  नहीं रहता बल्कि आगे आने वाली पीढियां तक हमारे कार्यों से प्रभावित हो जाती हैं. जवाहरलाल नेहरु , धीरुभाई अम्बानी आदि के कार्यों का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रभाव आने वाली पीढ़ियों पर पड़ रहा है. कहा जाता है की गर्भावस्था के दौरान माँ  के व्यक्तित्व व कृतित्व का प्रभाव तो उसके अजन्मे बच्चे पर भी पड़ता है . हम अपने कर्मों के द्वारा न सिर्फ स्वयं का बल्कि आने वाली पीढ़ियों का भी भविष्य निर्मित करते हैं. सामान्यतः  एक धनी , प्रभावशाली व्यक्ति के बच्चों और गरीब नौकर के बच्चों के रहन-सहन, आचार-विचार , बुद्धि-कौशल , संस्कार, वातावरण मे कितना बड़ा अंतर दीखता है - कितना बड़ा, जरा सोचिये तो सही. ये अंतर उनके पालकों और  पूर्वजों के कर्मों के द्वारा ही तो उत्पन्न किया गया है . यदि संयोगवश गरीब घर का लड़का अमीर के  घर मे पैदा हुआ होता, और अमीर घर का लड़का गरीब घर मे, तो मात्र इतने से ही स्थितियां बहुत हद तक बदल जाती
                अस्तु, मेरा मानना यह है की एक व्यक्ति का कार्य सिर्फ उसके समकालीन व्यक्तियों पर ही नहीं, अपितु भविष्य मे होने वाले  व्यक्तियों पर भी प्रभाव उत्पन्न करता है . मैं मानता हूँ की इंसान सदैव सिर्फ और सिर्फ  अपने लिए कुछ नहीं कर सकता, वह  दूसरों के लिए भी चाहे -अनचाहे, जाने-अनजाने  कुछ न कुछ करते ही रहता  है.
          अब मुझे लगता है की हमें सतर्कता से सोच-विचारकर विवेक का आश्रय लेते हुए कर्म करने की सलाह क्यूँ दी जाती है? हम अपने कर्मों के लिए जिम्मेदार हैं, सिर्फ अपने लिए ही नहीं, दूसरों के लिए भी. इसलिए हमारा कर्त्तव्य है की हम विवेकयुक्त होकर, तर्क और भावना का समुचित उपयोग  करते हुए कार्य करें जिस से हमारा और दूसरों का- दोनों का ही भला हो .
              जब हमारे कार्यों का लोगों पर कुछ न कुछ असर होना ही है, तो क्यों  न हम ऐसे कार्य करें जिसका लोगों पर  सकारात्मक असर हो.  नकारात्मक विचारों का स्त्रोत बनने की बजाय क्यूँ न सकारात्मक विचारों का स्त्रोत बने. गीता मे कहा गया है - योगः कर्मसु कौशलम - कर्मों को कुशलता से करने का नाम ही योग है . गीता मे ये भी कहा गया है की  गहना कर्मणो  गतिः - कर्म की गति बहुत ही गहन है. ये दोनों बातें बताती  है की 'समुचित समय मे समयोचित कर्म करना कितना मुश्किल होता है. जिसने इस रहस्य को समझ लिया, शायद उसने जीवन मे सब कुछ पा लिया ,पर इस रहस्य को पूर्ण रूप से शायद ही कोई जान पाया हो . 'विवेकयुक्त निष्काम कर्मयोग' के माध्यम से ही शायद हम अपना और अपने लोगों का भला कर पायें . इसका अर्थ यही है की कर्म करने के पूर्व हम अपने तर्क, भावना व विवेक के जरिये उसकी उपयुक्तता की परख करें, और इसके बाद हम अपने और सबके हित के लिए जो उचित प्रतीत हो, वह कार्य  करें.
                           हम अपने  निजी हितों के साथ-साथ समष्टिगत हितों का भी ध्यान रखें, समष्टिगत हितों के साथ-साथ निजी हितों का भी ध्यान रखें. अपने व्यक्तित्व व कृतित्व मे संतुलन बनाये रखें . न अपने साथ नाइंसाफी करें, न किसी और के साथ , क्यूंकि नाइंसाफी आखिर नाइंसाफी है - चाहे अपने साथ हो या किसी और के साथ.   उचित यही होगा कि  ''अपने और सबके हित के लिए   है जो बेहतर से भी बेहतर , उस समष्टि हित हेतु हम  सब कार्यरत रहे प्रतिपल होकर  तत्पर ''.         

Saturday, 19 June 2010

सकल पदारथ और मानव संसाधन

                     सकल पदारथ है जग माहीं - इस विश्व मे सकल पदार्थ है.  ये बहुत हद तक हमारे  चुनाव के  उपर निर्भर करता है की हमें क्या मिलता है और जो मिलता है उसका हम किस प्रकार सदुपयोग कर पाते हैं .संसार मे फूल भी हैं और गन्दगी भी.  मधुमक्खी हमेशा फूलों पर बैठती है, मक्खी  गन्दगी पर .मधुमक्खियाँ कालोनी बनाकर रहती हैं,मक्खी की कोई कालोनी नहीं होती .मधुमक्खियाँ आपस मे सहयोग की भावना से कार्य करती  हैं, मक्खियों मे कोई सहयोग की भावना नहीं होती . मधुमक्खी को जब कोई छेड़ता  है तभी  वो दंड देती है, उसके पहले शांति से रहती हैं .मधुमक्खियाँ अकारण किसी को कष्ट नहीं देती . मधुमक्खी शहद  देती है ,मक्खी बीमारी फैलाती  है .यही कारण है की मधुमक्खी को पाला जाता है,मक्खी को कोई देखना भी पसंद नहीं करता.मधुमक्खी जानती हैं की संसार मे फूल भी है और गन्दगी भी परन्तु वह इन दोनों विकल्पों से फूल का ही चुनाव करती है,गन्दगी का नहीं. व्यक्ति को भी फूल का चुनाव करना चाहिए,गन्दगी का नहीं . हंस की तरह नीर-क्षीर विवेक से युक्त  होकर पानी और दूध को अलग-अलग कर दूध को ग्रहण करना चाहिए .
            बहरहाल,  वास्तव मे मानव संसाधन की उत्कृष्टता   ही प्राकृतिक संसाधनों का दोहन या उपयोग सुनिश्चित करते हुए  धन उत्पन्न करती है,नहीं तो 'अमीर धरती गरीब लोग' वाली कहावत चरितार्थ होती है . आज से लगभग ५०० वर्ष पूर्व भी अमेरिका मे प्रचुर प्राकृतिक संसाधन उपलब्ध था, परन्तु  वहां रेड इंडियन निवास करते थे, और वह विश्व का सर्वाधिक शक्तिशाली देश नहीं था. आज वही अमेरिका है, लगभग वही प्राकृतिक संसाधन आज भी वहां है और वह विश्व का सर्वाधिक शक्तिसंपन्न देश माना  जाता है.प्राकृतिक संसाधन तो वही हैं पर मानव संसाधन की गुणवत्ता बदल चुकी है .
                         मानव संसाधन की संख्या या मात्रा से भी महत्वपूर्ण होती है उसकी गुणवत्ता. हमारे देश की जनसंख्या अधिक है परन्तु हमसे भी कम जनसंख्या वाले देश विकासशील  से विकसित हो चुके हैं ,परन्तु हम अभी विकासशील ही है .चीन की जनसंख्या तो हमसे भी  अधिक है परन्तु वह आज विश्व की महत्वपूर्ण महाशक्तियों मे से एक है. चीन   के विकास मे मैं मानता हूँ की इस देश  के मानव संसाधन की उत्कृष्टता के साथ साथ यहाँ  के राजनयिकों के यथार्थवादी दृष्टिकोण  का भी बेहद महत्व है .यदि ये मेरा पूर्वाग्रह नहीं तो मैं मानता हूँ की इस राष्ट्र ने सत्यमेव  जयते के स्थान पर शक्तिमेव जयते  को ही व्यवहारिक रूप से  अपना आदर्श  वाक्य बनाया हुआ है . भारत को इस देश से सीख  लेनी चाहिए . वास्तव मे जिसे हम  अपना दुश्मन मानते हैं या भयभीत होते हैं, उसके पास हमे बहुत कुछ सिखाने के लिए होता है. चीन भी एक ऐसा ही देश है .
            'चीन इतिहास से सबक लेता है, भारत कभी नहीं लेता और जो इतिहास से सबक लेता है वही देश तेजी से तरक्की करता है'. हमें ये समझना होगा की बीसवीं सदी के  मध्य मे चीन कोई मजबूत शक्ति नहीं थी.१५ अगस्त १९४७ को भारत आजाद हुआ और १ अक्टूबर १९४९ को पीपल्स रिपब्लिक आफ चाइना अस्तित्व मे आई.भारत और चीन  दोनों देशों की स्थितियां  कमोबेश एक सामान थी.भारत तो सिर्फ ब्रिटेन का उपनिवेश था, चीन अनेक  यूरोपीय देशों का.चीनी तरबूजों का काटा जाना-तात्कालिक चीनी साम्राज्य का ब्रिटेन,फ्रांस,रूस, अमेरिका,जापान आदि साम्राज्यवादी ताकतों द्वारा अपने-अपने  आधिपत्य क्षेत्रों मे बांटे  जाने से विश्व इतिहास का प्रत्येक विद्यार्थी परिचित होगा . चीन गृहयुद्ध के दौर से भी गुजरा ,जापान के आक्रमण का शिकार हुआ, परन्तु १ अक्टूबर १९४९ के बाद इस देश ने तरक्की की और फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा .आज वह विश्व की सर्वप्रमुख आर्थिक और सामरिक शक्तियों मे से एक है .निस्संदेह चीन बहुत आगे निकल चुका  है .इसलिए भारत को सदैव अपने छद्म आदर्शवाद का राग अलापने की जगह अपने पडोसी चीन से सीखना चाहिए -यथार्थवाद और विकास के प्रति सच्ची प्रतिबद्धता.
                          और सिर्फ चीन से ही क्यूँ ,हर विकसित राष्ट्र से सीखना चाहिए .भारत को विश्वगुरु कहा जाता था परन्तु आज  विश्वगुरु वही हो सकता है जो सदैव अच्छे विद्यार्थी की भूमिका का निर्वहन कर सीखने की प्रक्रिया निरंतर जारी रखे और सीखा सभी से जा सकता है - बस सीखने की सच्ची लगन होनी चाहिए . 

Friday, 18 June 2010

एक लीक काजर की

                   हमें स्वविवेक का आश्रय लेते हुए ही जीवन के फैसले लेने चाहिए, न की कागजों में लिखी हुई बातों का अक्षरशः अंधानुसरण करते हुए .अच्छे -बुरे के निर्धारण में स्वविवेक का बहुत महत्व होता है. किताबों में लिखी हुई बातों के अंधानुसरण से ये कहीं ज्यादा उचित है की हम प्रकृति प्रदत्त स्वविवेक का सहारा लें . इश्वर प्रदत्त स्वविवेक का सहारा लेकर जहाँ सत्य बोलना उचित प्रतीत होता है ,वहां सत्य बोलें ,जहाँ झूठ बोलना उचित प्रतीत होता है वहां झूठ . एक प्रश्न मेरे मन में बचपन से गूंज रहा है . मेरे शिक्षकों द्वारा मुझे दो किस्म की विरोधाभासी बातें सुनने को मिली . पहला, 'कोयले के साथ कभी दोस्ती नहीं करनी चाहिए, गर्म रहे तो हाथ जला देती है, ठंडा रहे तो हाथ काला कर देती है' . ये मथुरा काजल की कोठरी कैसो ही सयानो जाये, एक लीक काजर की लागि है पै लागी है. दूसरा, 'जो सज्जन उतम प्रकृति, का करि सकत कुसंग, चन्दन विष व्यापत नहीं, लिपटे रहत भुजंग.' एक कहता है की दुष्टों का साथ कभी नहीं करना चाहिए, दूसरा कहता है की उत्तम प्रकृति के मनुष्य पर कुसंगति का कोई असर नहीं होता- क्या सही है, क्या गलत ?
                 दोनों बातें एक दृष्टि से भले ही विरोधाभासी लग रही हो, पर विरोधाभास है नहीं. वास्तव में शक्ति ही शक्ति को विजित करती है. यदि सज्जनता में दुर्जनता से कही ज्यादा शक्ति होगी, तो वो दुर्जनता को जीत लेगी. यदि दुर्जनता ज्यादा ताकतवर हो गई, तो दुर्जनता जीतेगी .
                जैसे पेड़ जब बहुत छोटा होता है, तो छोटी सी बकरी भी उसे खा जाती है, पर उस पौधे के बड़े हो जाने और बडे वृक्ष मे तब्दील हो जाने पर उसके तने से पचासों बकरियों को बाँधा जा सकता है . इस से वृक्ष को कोई फर्क नहीं पड़ता . सत्संगति और कुसंगति से सम्बंधित नियम भी ऐसा ही है .
;जब सत्संगति या चरित्र का पौधा बहुत छोटा होता है तो उसके आस-पास बाड़ लगाने की आवश्यकता पड़ती ही है, वर्ना कोई न कोई दुर्गुण या कुसंगति रूपी बकरी उस चरित्र रूपी पौधे को ख़त्म कर सकती है. छोटे बच्चों को कुसंगति से बचाना अत्यधिक आवश्यक है, उसी तरह जैसे छोटे पौधे को बकरियों से बचाना . एक बार सुगठित चरित्र का निर्माण हो जाने के बाद , पौधे के वृक्ष मे तब्दील हो जाने क बाद चाहे जितनी ही बकरियां आयें जाएँ , कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता .बात हमेशा सापेक्ष शक्ति की होती है . यों तो हमारे शरीर में असंख्य जीवाणु, कीटाणु, विद्यमान रहते हैं , हमारे चारों और ही न जाने कितने होंगे .पर वो हम पर तब तक असर नहीं करते जब तक हम मजबूत होते हैं . वो हम पर तभी असर करते हैं जब हम कमजोर हो जाते हैं और हमारी प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है . स्वस्थ मनुष्य छोटी -छोटी बीमारियों के धक्कों को आसानी से झेल सकता है, पर जिसको एड्स हुआ है , उसके लिए तो छोटी से छोटी बीमारी भी काल का रूप है , क्यूंकि उसकी प्रतिरोधक क्षमता ख़त्म हो चुकी है . यही बात सत्संगति और कुसंगति पर भी लागू होती है . यदि आप मे रामकृष्ण परमहंस जैसे उच्च कोटि के संस्कार हैं , तो आप वेश्याओं मे भी 'माँ' देखेंगे . आपके नजदीक आकर के कुसंस्कारी मनुष्य भी सुसंस्कृत हो जायेगा . यदि आपकी 'अहिंसा' मे ताकत होगी, तो शेर - बकरी भी एक घाट पर पानी पियेंगे . तो प्रश्न वास्तव मे शक्ति का ही है .
                      भीष्म पितामह का उदाहरण याद आ रहा है . जब तक वो संभल पाते, तब तक लगता है की वो कौरवों का इतना ज्यादा अन्न खा चुके थे की उनकी बुद्धि 'भ्रष्ट' हो गयी थी. ये बात उन्होंने द्रौपदी को अपने अंतिम समय मे बताई भी थी. आप सोचिये की उनके जैसा चरित्रवान, भक्त और तेजस्वी व्यक्ति भी किसी खोखले प्रण की खातिर, पता नहीं किस मजबूरी मे एक अबला की इज्जत की रक्षा करने से पीछे हट गए व अधर्म के पक्ष मे युद्ध किया शायद कौरवों के अन्न की शक्ति जिसे वो हमेशा लेते रहे हों, उसमे संचित अवगुणों ने उनकी बुद्धि भ्रष्ट कर दी हो .जब भीष्म पितामह जैसे उच्च कोटि के व्यक्ति का यह हाल हो सकता है तो सामान्य व्यक्ति की क्या गिनती. अतः हमें अपने सत्संस्कारों को मजबूत आधार देना होगा ताकि कुसंस्कार रूपी कोई भूचाल हमारे संस्कारों की जड़ें न उखाड़ सके . खुद को इतना मजबूत बना लेना होगा की हमारे नजदीक आकर दुर्गुणों से युक्त व्यक्ति भी गुणों से युक्त होने लगे और उसके दुर्गुणों का हमारे ऊपर अल्प से अतिअल्प असर हो .क्योंकि हम जिस दुनिया मे रहते है, वो स्वयं ही एक काजल की कोठरी से कम नहीं है, और सयानों के लिए भी यहाँ एक लीक काजर की लगना कोई असामान्य बात नहीं.

Tuesday, 15 June 2010

सत्यमेव जयते या शक्तिमेव जयते

सत्यमेव जयते या शक्तिमेव जयते- सत्य की विजय होती है या शक्ति की ? क्या कमजोर सत्य शक्तिशाली असत्य के विरुद्ध युद्ध में विजयी हो सकता है ? क्या सत्य के विजयी होने के लिए उसका सिर्फ सत्य होना काफी है? क्या सत्य सदैव विजयी होता है? आखिर सत्य क्या है इसका फैसला किस प्रकार होगा ? वास्तविक जीवन में क्या सिर्फ सत्य विजयी होता है या शक्तिशाली असत्य विजयी होता है? क्या है वास्तविक जीवन की सच्चाई? जहाँ तक मेरी दृष्टि जाती है, वहां तक मुझे 'शक्तिमेव जयते ' ही वास्तविक जीवन की सच्चाई प्रतीत होती है । वास्तव में जीवन का सबसे बड़ा सत्य तो यही है की वो व्यक्ति को पल-पल ये सन्देश देती है की अपनी शक्ति को बढाओ, समर्थ बनो, किसी भी प्रकार की कमजोरी को प्रश्रय न दो- क्लैव्यम मा स्म गमः पार्थ । समरथ को नहीं दोष गुसाईं । वीर भोग्या वसुंधरा । प्रकृति सदैव शक्ति को प्रश्रय प्रदान करती है। शक्तिशाली का पक्ष लेती है कमजोर का नहीं । प्रश्न यहाँ सत्य असत्य का कभी पैदा नहीं होता । प्रश्न शक्ति-अशक्ति का पैदा होता है । यदि आप शक्तिशाली हैं तो विजयी होंगे ,कमजोर हैं तो पराजित होंगे-फिर चाहे वो व्यक्ति हो या राष्ट्र? प्रत्येक व्यक्ति और प्रत्येक राष्ट्र को अपनी मजबूती की कीमत मिलती है व अपनी कमजोरी की कीमत चुकानी पड़ती है। Every person n every nation gets the 'prize' for its strength and pays the 'price' for its weakness.
भारत में आदर्शवाद की धुंध इतनी छाई हुई है की वो यथार्थ का सामना ही नहीं करना चाहती। आदर्शवाद के नाम पर वो अपनी कमजोरियों को ढके हुए बैठी है व अपनी कमजोरियों को दूर करना भी नहीं चाहती।