Tuesday 29 June, 2010

तर्क, भावना और विवेक

                        प्रायः यह देखा जाता है कि इंसान अपनी भावनाओं के द्वारा किसी नतीजे  तक पहुँचता है और तर्क के द्वारा, एक वकील कि तरह, उस नतीजे  या निर्णय को सही सिद्ध करने की कोशिश करता है. इंसान के द्वारा किया गया तर्क उसका सही परिचय नहीं देता, बल्कि उसकी भावनाएं उसका सही परिचय देती हैं. अच्छी भावनाएं  अच्छे इंसान होने  का परिचायक है, परन्तु अच्छा तर्क करना  एक अच्छे इंसान होने का शायद ही स्पष्ट परिचायक  हो. किसी का तर्क  हमें प्रभावित जरूर कर सकता है, लेकिन  हमारे  दिलों  को नहीं छू सकता. हाँ, किसी कि अच्छी भावनाएं जरूर हमारे  दिल को छू जाती हैं.  वैसे तर्क और भावना एक दूसरे कि पूरक होती हैं . यदि सही भावना मे सही तर्क न हो, तो इंसान भावनाओं कि बाढ़ मे बहते बहते किसी ऐसे भंवर कि और चला जाता है जहाँ पर डूबना ही उसकी नियति बन जाती है  और यदि सही तर्क मे सही भावना न हो, तो भी इंसान सिर्फ अपनी ख़ुशी और अपने सुख के लिए किसी ऐसे रास्ते कि और चल पड़ता है,  जहाँ अंत मे ग्लानि  और पछतावे के सिवा कुछ  नहीं रहता है .
                        मैंने अक्सर 'तर्क , भावना और विवेक' शब्दों का प्रयोग किया है.  क्या फर्क है तर्क और भावना मे ? क्यूँ मैंने कहा है कि तर्क और भावनाएं एक दूसरे कि पूरक है?  इसलिए क्यूंकि दोनों के बिना काम नहीं चल सकता. प्रकृति ने मनुष्य को तर्क करने कि क्षमता भी दी है और भावुक होने  कि विशेषता भी . तर्क करना दिमाग का काम है और भावुक होना दिल का. एक छोटे से बच्चे को देखकर, उसकी मुस्कुराहट और उछलकूद देखकर किसी भी इंसान के मन मे जो ख़ुशी  उत्पन्न  होती है, उसको तर्क से कौन समझा सकता है?  किसी दुखी इंसान को देखकर के मन मे जो करुणा  उत्पन्न होती है, कोई तर्क से उसे समझाने कि कोशिश करे , शायद नहीं समझा पायेगा . अपनी जन्मभूमि से लगाव  कि भावना, माँ का बच्चे के प्रति वात्सल्य, मीरा का कृष्ण को पति मानने कि भावना, रिश्तों को रिश्ता मानने कि भावना, प्रेम, घृणा, पूर्वाग्रह कि भावना, अपने को उच्च समझने कि भावना, स्वयं को निम्न समझने कि भावना ... भावना मे इंसान साबित नहीं करता, वह महसूस करता है. तर्क मे इंसान साबित करता है, महसूस कम.  क्रौंच पक्षी को मरते देखकर आदिकवि वाल्मीकि के मन मे जो करुणा और व्यथा उत्पन्न हुई होगी, उसे कौन किसी दुसरे इंसान को 'समझा' सकता है?  'म़ा  निषाद प्रतिष्ठाम  त्वमगमः ' कहते हुए उनके मन मे व्याध के लिए उत्पन्न क्रोध की भावना को तर्क से कौन समझाए?  ये महसूस करने वाली बातें हैं,  साबित करने वाली कम. 'वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान'. उस वियोगी कवि के मन मे उठने वाली भावना को हम भावना से ही महसूस कर सकते हैं, तर्क के माध्यम से नहीं. इंसान को सम्मान और प्यार मिलता है तो उसकी अच्छी भावनाओं के कारण. इंसान को नफरत और हिकारत  मिलती है, तो उसकी बुरी भावनाओं के कारण.  भावना और तर्क मे भावना का महत्व प्रथम है, तर्क का काम तो भावना के बाद होता है .
                             पर क्या भावना ही सब कुछ है ?  भावना तो पशुओं मे भी होती है. उनका भी समाज होता है. तो फिर इंसान और पशु मे फर्क कहाँ पैदा होता है ?  पैदा होता है इंसान कि तर्क करने कि विशिष्ट क्षमता के विकसित  होने के कारण.  तर्क एक ऐसी क्षमता है जो साबित करती है . तर्क करना दिमाग का काम है , दिल का नहीं.  तर्क फायदे या नुकसान के विषय मे सोचता है, भावना फायदा या नुकसान  नहीं देखती है और देखती है तो शायद वो भावना नहीं है, वो कहीं न कहीं तर्क है.  प्रायः भावना ही  लक्ष्य का निर्धारण करती है और  तर्क उस तक पहुँचने का मार्ग  तलाशता   है. भावना द्वारा निर्धारित लक्ष्य को किस मार्ग से किस तरह प्राप्त किया जाए, ये तर्क ही बताता है. दो इंसानों के मन मे देशप्रेम कि भावना जगी, दोनों ने अपने अपने तर्क का सहारा लिया, तर्क ने उन्हे रास्ता दिखाया, उनकी मदद की और कोई भगत सिंह बन गया और कोई महात्मा गाँधी.  जिसके तर्क ने जिसको जैसा रास्ता दिखाया, वो वैसा ही बन गया. इसके पीछे मूल  प्रेरणा भावना थी, तर्कों का अलग अलग होना या यूँ कह लीजिये कि रास्तों का अलग होना ही ने किसी को कुछ और किसी को कुछ बना दिया. रास्तों के अलग-अलग होने, अहिंसा या हिंसा का अलग अलग माध्यम किसी सामान उद्देश्य कि प्राप्ति हेतु अपनाने के बावजूद यदि हम भगत सिंह  और महात्मा गाँधी को सम्मान और प्यार देते हैं, तो सिर्फ इस कारण क्योंकि दोनों कि भावनाएं अच्छी थी. अच्छी भावनाएं, हाँ, सिर्फ अच्छी भावनाएं अच्छे इंसान का परिचायक होती हैं. तर्क तो आप जैसा चाहे, आपकी भावना आपसे करा लेगी. जिस तरह से मुवक्किल को वकील कि जरुरत रहती है, अपने पक्ष को सही साबित करने के लिए, उसी तरह से भावना को तर्क कि आवश्यकता होती है, स्वयं को आधार देने और सही साबित करने के लिए.  इसलिए दोनों एक दूसरे की  पूरक हैं .
                              अब आते हैं विवेक पर. विवेक तर्क और भावना को नियंत्रित  करने वाली सत्ता है. विवेक भावना और तर्क को संतुलन मे रखने का कार्य करता है. कब भावना का इस्तेमाल करना है और कब तर्क का- ये विवेक बतलाता है. विवेक कर्त्तव्य  का ज्ञान  कराता है. सही या गलत तर्क या भावना को विवेक परखता  है. जब तर्क आउट ऑफ़ कण्ट्रोल हो तो तर्क पर भावना का ब्रेक  लगता है और जब भावना आउट ऑफ़ कण्ट्रोल हो तो उस पर  तर्क का ब्रेक  लगता है. ब्रेक  लगाने का काम विवेक करता है. विवेक तर्क और भावना के मध्य सामंजस्य स्थापित करता है. सामंजस्य ब्रेक  लगाकर ही करता है. मेरी भावुकता कहीं मुझे बहाकर न ले जाए, इसलिए तर्क का ब्रेक  लगाना पड़ता है  और तर्क करते हुए मै स्वार्थी न हो जाऊं इसलिए भावना का ब्रेक लगाना पड़ता है ,.
                     शायद इसीलिए ये भी कहा जाता है कि '' जब नाश मनुज पर छाता है, सबसे पहले विवेक मर जाता है''. विवेक ख़त्म होने पर व्यक्ति का मानसिक संतुलन ख़त्म हो जाता है क्यूंकि उसकी या तो भावना अनियंत्रित हो जाती हैं या फिर तर्क.  जब तर्क और भावना  के मध्य अंतर्विरोध हो, तो निर्णय करने का, सामंजस्य स्थापित करने का काम विवेक ही करता है.  विवेक तत्कालीन परिस्थितियों मे सदैव  यथासंभव सर्वोत्तम, आवश्यक, उचित और  सबकी बेहतरी का मार्ग  तलाशता है.  चूँकि विवेक ही कर्त्तव्य का ज्ञान कराता  है, शायद इसीलिए  ये कहा जाता है कि व्यक्ति  को सदैव  अपने विवेक से कार्य  करना चाहिए.
                     अस्तु,  ये उचित प्रतीत होता है की व्यक्ति सदैव अपने इश्वर प्रदत्त  विवेक से अपने ''कर्त्तव्य अर्थात किये जाने चाहिए योग्य कर्म''  का निर्धारण करे व तदनुरूप अपने कर्तव्यों का निर्वहन करे .

Monday 28 June, 2010

जीना सिर्फ किसके लिए

                  अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए जियो- जरा इस सिद्धांत के विषय मे सोचते हैं.  क्या कोई ऐसा व्यक्ति हो सकता है जो सिर्फ अपने लिए ही जीता हो ? क्या सिर्फ   अपने लिए जीना निरपेक्ष रूप से संभव है ?
                 हम सब सृष्टि के अंग हैं. समस्त सृष्टि ,जिसे हम ब्रह्माण्ड का नाम दे सकते  हैं, के विभिन्न अवयव एक दुसरे से जुडे हुए हैं .हम हिमालय पर्वत की घाटी मे रहकर भी किसी मंत्र का उच्चारण करें या किसी अपशब्द का , वही   शब्द, वही   उच्चारण वापस लौटकर हमारे पास  प्रतिध्वनि के रूप मे पहुँचती है . वो आवाज एक तरंग बनकर जाने कहाँ-कहाँ तक पहुँच जाती होगी और न जाने कितनों पर प्रभाव डालती होगी. हम सब के तार एक दुसरे से जुड़े हुए हैं.  सृष्टि ने, प्रकृति ने हमारी सीमायें नियत कर रखी हैं. हम सिर्फ और सिर्फ अपने लिए कुछ नहीं कर सकते क्योंकि  जो कुछ भी हम करते हैं, उसके प्रभाव को हम पूर्ण रूप से नियंत्रित नहीं कर सकते. जरुरी नहीं की हम जो कुछ करते हैं, उसका प्रभाव सिर्फ हम पर पडे. उसका प्रभाव कहीं न कहीं दूसरों पर पड़ता ही है. लोग सिगरेट पीते हैं, उसका दुष्प्रभाव उन पर तो पड़ता ही है, साथ ही साथ निकट बैठे लोग भी उस से प्रभावित होते हैं. किसी फैक्ट्री से कोई जहरीली गैस का रिसाव होता है  और हजारों लोग प्रभावित होते हैं. तो क्या इस से ये साबित नहीं होता की कोई कर्म ऐसा नहीं है जो सिर्फ और सिर्फ स्वयं के लिए हो या सिर्फ और सिर्फ  दूसरों के लिए.  प्रभाव तो समष्टि पर पड़ता है, प्रभाव एक व्यक्ति तक सीमित  नहीं रहता .
                  यहाँ यह भी ध्यान रखना जरुरी है की हम जो करते हैं,  उसका प्रभाव सिर्फ हमारे अपने लोगों या अपनी पीढ़ी तक ही सीमित  नहीं रहता बल्कि आगे आने वाली पीढियां तक हमारे कार्यों से प्रभावित हो जाती हैं. जवाहरलाल नेहरु , धीरुभाई अम्बानी आदि के कार्यों का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रभाव आने वाली पीढ़ियों पर पड़ रहा है. कहा जाता है की गर्भावस्था के दौरान माँ  के व्यक्तित्व व कृतित्व का प्रभाव तो उसके अजन्मे बच्चे पर भी पड़ता है . हम अपने कर्मों के द्वारा न सिर्फ स्वयं का बल्कि आने वाली पीढ़ियों का भी भविष्य निर्मित करते हैं. सामान्यतः  एक धनी , प्रभावशाली व्यक्ति के बच्चों और गरीब नौकर के बच्चों के रहन-सहन, आचार-विचार , बुद्धि-कौशल , संस्कार, वातावरण मे कितना बड़ा अंतर दीखता है - कितना बड़ा, जरा सोचिये तो सही. ये अंतर उनके पालकों और  पूर्वजों के कर्मों के द्वारा ही तो उत्पन्न किया गया है . यदि संयोगवश गरीब घर का लड़का अमीर के  घर मे पैदा हुआ होता, और अमीर घर का लड़का गरीब घर मे, तो मात्र इतने से ही स्थितियां बहुत हद तक बदल जाती
                अस्तु, मेरा मानना यह है की एक व्यक्ति का कार्य सिर्फ उसके समकालीन व्यक्तियों पर ही नहीं, अपितु भविष्य मे होने वाले  व्यक्तियों पर भी प्रभाव उत्पन्न करता है . मैं मानता हूँ की इंसान सदैव सिर्फ और सिर्फ  अपने लिए कुछ नहीं कर सकता, वह  दूसरों के लिए भी चाहे -अनचाहे, जाने-अनजाने  कुछ न कुछ करते ही रहता  है.
          अब मुझे लगता है की हमें सतर्कता से सोच-विचारकर विवेक का आश्रय लेते हुए कर्म करने की सलाह क्यूँ दी जाती है? हम अपने कर्मों के लिए जिम्मेदार हैं, सिर्फ अपने लिए ही नहीं, दूसरों के लिए भी. इसलिए हमारा कर्त्तव्य है की हम विवेकयुक्त होकर, तर्क और भावना का समुचित उपयोग  करते हुए कार्य करें जिस से हमारा और दूसरों का- दोनों का ही भला हो .
              जब हमारे कार्यों का लोगों पर कुछ न कुछ असर होना ही है, तो क्यों  न हम ऐसे कार्य करें जिसका लोगों पर  सकारात्मक असर हो.  नकारात्मक विचारों का स्त्रोत बनने की बजाय क्यूँ न सकारात्मक विचारों का स्त्रोत बने. गीता मे कहा गया है - योगः कर्मसु कौशलम - कर्मों को कुशलता से करने का नाम ही योग है . गीता मे ये भी कहा गया है की  गहना कर्मणो  गतिः - कर्म की गति बहुत ही गहन है. ये दोनों बातें बताती  है की 'समुचित समय मे समयोचित कर्म करना कितना मुश्किल होता है. जिसने इस रहस्य को समझ लिया, शायद उसने जीवन मे सब कुछ पा लिया ,पर इस रहस्य को पूर्ण रूप से शायद ही कोई जान पाया हो . 'विवेकयुक्त निष्काम कर्मयोग' के माध्यम से ही शायद हम अपना और अपने लोगों का भला कर पायें . इसका अर्थ यही है की कर्म करने के पूर्व हम अपने तर्क, भावना व विवेक के जरिये उसकी उपयुक्तता की परख करें, और इसके बाद हम अपने और सबके हित के लिए जो उचित प्रतीत हो, वह कार्य  करें.
                           हम अपने  निजी हितों के साथ-साथ समष्टिगत हितों का भी ध्यान रखें, समष्टिगत हितों के साथ-साथ निजी हितों का भी ध्यान रखें. अपने व्यक्तित्व व कृतित्व मे संतुलन बनाये रखें . न अपने साथ नाइंसाफी करें, न किसी और के साथ , क्यूंकि नाइंसाफी आखिर नाइंसाफी है - चाहे अपने साथ हो या किसी और के साथ.   उचित यही होगा कि  ''अपने और सबके हित के लिए   है जो बेहतर से भी बेहतर , उस समष्टि हित हेतु हम  सब कार्यरत रहे प्रतिपल होकर  तत्पर ''.         

Saturday 19 June, 2010

सकल पदारथ और मानव संसाधन

                     सकल पदारथ है जग माहीं - इस विश्व मे सकल पदार्थ है.  ये बहुत हद तक हमारे  चुनाव के  उपर निर्भर करता है की हमें क्या मिलता है और जो मिलता है उसका हम किस प्रकार सदुपयोग कर पाते हैं .संसार मे फूल भी हैं और गन्दगी भी.  मधुमक्खी हमेशा फूलों पर बैठती है, मक्खी  गन्दगी पर .मधुमक्खियाँ कालोनी बनाकर रहती हैं,मक्खी की कोई कालोनी नहीं होती .मधुमक्खियाँ आपस मे सहयोग की भावना से कार्य करती  हैं, मक्खियों मे कोई सहयोग की भावना नहीं होती . मधुमक्खी को जब कोई छेड़ता  है तभी  वो दंड देती है, उसके पहले शांति से रहती हैं .मधुमक्खियाँ अकारण किसी को कष्ट नहीं देती . मधुमक्खी शहद  देती है ,मक्खी बीमारी फैलाती  है .यही कारण है की मधुमक्खी को पाला जाता है,मक्खी को कोई देखना भी पसंद नहीं करता.मधुमक्खी जानती हैं की संसार मे फूल भी है और गन्दगी भी परन्तु वह इन दोनों विकल्पों से फूल का ही चुनाव करती है,गन्दगी का नहीं. व्यक्ति को भी फूल का चुनाव करना चाहिए,गन्दगी का नहीं . हंस की तरह नीर-क्षीर विवेक से युक्त  होकर पानी और दूध को अलग-अलग कर दूध को ग्रहण करना चाहिए .
            बहरहाल,  वास्तव मे मानव संसाधन की उत्कृष्टता   ही प्राकृतिक संसाधनों का दोहन या उपयोग सुनिश्चित करते हुए  धन उत्पन्न करती है,नहीं तो 'अमीर धरती गरीब लोग' वाली कहावत चरितार्थ होती है . आज से लगभग ५०० वर्ष पूर्व भी अमेरिका मे प्रचुर प्राकृतिक संसाधन उपलब्ध था, परन्तु  वहां रेड इंडियन निवास करते थे, और वह विश्व का सर्वाधिक शक्तिशाली देश नहीं था. आज वही अमेरिका है, लगभग वही प्राकृतिक संसाधन आज भी वहां है और वह विश्व का सर्वाधिक शक्तिसंपन्न देश माना  जाता है.प्राकृतिक संसाधन तो वही हैं पर मानव संसाधन की गुणवत्ता बदल चुकी है .
                         मानव संसाधन की संख्या या मात्रा से भी महत्वपूर्ण होती है उसकी गुणवत्ता. हमारे देश की जनसंख्या अधिक है परन्तु हमसे भी कम जनसंख्या वाले देश विकासशील  से विकसित हो चुके हैं ,परन्तु हम अभी विकासशील ही है .चीन की जनसंख्या तो हमसे भी  अधिक है परन्तु वह आज विश्व की महत्वपूर्ण महाशक्तियों मे से एक है. चीन   के विकास मे मैं मानता हूँ की इस देश  के मानव संसाधन की उत्कृष्टता के साथ साथ यहाँ  के राजनयिकों के यथार्थवादी दृष्टिकोण  का भी बेहद महत्व है .यदि ये मेरा पूर्वाग्रह नहीं तो मैं मानता हूँ की इस राष्ट्र ने सत्यमेव  जयते के स्थान पर शक्तिमेव जयते  को ही व्यवहारिक रूप से  अपना आदर्श  वाक्य बनाया हुआ है . भारत को इस देश से सीख  लेनी चाहिए . वास्तव मे जिसे हम  अपना दुश्मन मानते हैं या भयभीत होते हैं, उसके पास हमे बहुत कुछ सिखाने के लिए होता है. चीन भी एक ऐसा ही देश है .
            'चीन इतिहास से सबक लेता है, भारत कभी नहीं लेता और जो इतिहास से सबक लेता है वही देश तेजी से तरक्की करता है'. हमें ये समझना होगा की बीसवीं सदी के  मध्य मे चीन कोई मजबूत शक्ति नहीं थी.१५ अगस्त १९४७ को भारत आजाद हुआ और १ अक्टूबर १९४९ को पीपल्स रिपब्लिक आफ चाइना अस्तित्व मे आई.भारत और चीन  दोनों देशों की स्थितियां  कमोबेश एक सामान थी.भारत तो सिर्फ ब्रिटेन का उपनिवेश था, चीन अनेक  यूरोपीय देशों का.चीनी तरबूजों का काटा जाना-तात्कालिक चीनी साम्राज्य का ब्रिटेन,फ्रांस,रूस, अमेरिका,जापान आदि साम्राज्यवादी ताकतों द्वारा अपने-अपने  आधिपत्य क्षेत्रों मे बांटे  जाने से विश्व इतिहास का प्रत्येक विद्यार्थी परिचित होगा . चीन गृहयुद्ध के दौर से भी गुजरा ,जापान के आक्रमण का शिकार हुआ, परन्तु १ अक्टूबर १९४९ के बाद इस देश ने तरक्की की और फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा .आज वह विश्व की सर्वप्रमुख आर्थिक और सामरिक शक्तियों मे से एक है .निस्संदेह चीन बहुत आगे निकल चुका  है .इसलिए भारत को सदैव अपने छद्म आदर्शवाद का राग अलापने की जगह अपने पडोसी चीन से सीखना चाहिए -यथार्थवाद और विकास के प्रति सच्ची प्रतिबद्धता.
                          और सिर्फ चीन से ही क्यूँ ,हर विकसित राष्ट्र से सीखना चाहिए .भारत को विश्वगुरु कहा जाता था परन्तु आज  विश्वगुरु वही हो सकता है जो सदैव अच्छे विद्यार्थी की भूमिका का निर्वहन कर सीखने की प्रक्रिया निरंतर जारी रखे और सीखा सभी से जा सकता है - बस सीखने की सच्ची लगन होनी चाहिए . 

Friday 18 June, 2010

एक लीक काजर की

                   हमें स्वविवेक का आश्रय लेते हुए ही जीवन के फैसले लेने चाहिए, न की कागजों में लिखी हुई बातों का अक्षरशः अंधानुसरण करते हुए .अच्छे -बुरे के निर्धारण में स्वविवेक का बहुत महत्व होता है. किताबों में लिखी हुई बातों के अंधानुसरण से ये कहीं ज्यादा उचित है की हम प्रकृति प्रदत्त स्वविवेक का सहारा लें . इश्वर प्रदत्त स्वविवेक का सहारा लेकर जहाँ सत्य बोलना उचित प्रतीत होता है ,वहां सत्य बोलें ,जहाँ झूठ बोलना उचित प्रतीत होता है वहां झूठ . एक प्रश्न मेरे मन में बचपन से गूंज रहा है . मेरे शिक्षकों द्वारा मुझे दो किस्म की विरोधाभासी बातें सुनने को मिली . पहला, 'कोयले के साथ कभी दोस्ती नहीं करनी चाहिए, गर्म रहे तो हाथ जला देती है, ठंडा रहे तो हाथ काला कर देती है' . ये मथुरा काजल की कोठरी कैसो ही सयानो जाये, एक लीक काजर की लागि है पै लागी है. दूसरा, 'जो सज्जन उतम प्रकृति, का करि सकत कुसंग, चन्दन विष व्यापत नहीं, लिपटे रहत भुजंग.' एक कहता है की दुष्टों का साथ कभी नहीं करना चाहिए, दूसरा कहता है की उत्तम प्रकृति के मनुष्य पर कुसंगति का कोई असर नहीं होता- क्या सही है, क्या गलत ?
                 दोनों बातें एक दृष्टि से भले ही विरोधाभासी लग रही हो, पर विरोधाभास है नहीं. वास्तव में शक्ति ही शक्ति को विजित करती है. यदि सज्जनता में दुर्जनता से कही ज्यादा शक्ति होगी, तो वो दुर्जनता को जीत लेगी. यदि दुर्जनता ज्यादा ताकतवर हो गई, तो दुर्जनता जीतेगी .
                जैसे पेड़ जब बहुत छोटा होता है, तो छोटी सी बकरी भी उसे खा जाती है, पर उस पौधे के बड़े हो जाने और बडे वृक्ष मे तब्दील हो जाने पर उसके तने से पचासों बकरियों को बाँधा जा सकता है . इस से वृक्ष को कोई फर्क नहीं पड़ता . सत्संगति और कुसंगति से सम्बंधित नियम भी ऐसा ही है .
;जब सत्संगति या चरित्र का पौधा बहुत छोटा होता है तो उसके आस-पास बाड़ लगाने की आवश्यकता पड़ती ही है, वर्ना कोई न कोई दुर्गुण या कुसंगति रूपी बकरी उस चरित्र रूपी पौधे को ख़त्म कर सकती है. छोटे बच्चों को कुसंगति से बचाना अत्यधिक आवश्यक है, उसी तरह जैसे छोटे पौधे को बकरियों से बचाना . एक बार सुगठित चरित्र का निर्माण हो जाने के बाद , पौधे के वृक्ष मे तब्दील हो जाने क बाद चाहे जितनी ही बकरियां आयें जाएँ , कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता .बात हमेशा सापेक्ष शक्ति की होती है . यों तो हमारे शरीर में असंख्य जीवाणु, कीटाणु, विद्यमान रहते हैं , हमारे चारों और ही न जाने कितने होंगे .पर वो हम पर तब तक असर नहीं करते जब तक हम मजबूत होते हैं . वो हम पर तभी असर करते हैं जब हम कमजोर हो जाते हैं और हमारी प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है . स्वस्थ मनुष्य छोटी -छोटी बीमारियों के धक्कों को आसानी से झेल सकता है, पर जिसको एड्स हुआ है , उसके लिए तो छोटी से छोटी बीमारी भी काल का रूप है , क्यूंकि उसकी प्रतिरोधक क्षमता ख़त्म हो चुकी है . यही बात सत्संगति और कुसंगति पर भी लागू होती है . यदि आप मे रामकृष्ण परमहंस जैसे उच्च कोटि के संस्कार हैं , तो आप वेश्याओं मे भी 'माँ' देखेंगे . आपके नजदीक आकर के कुसंस्कारी मनुष्य भी सुसंस्कृत हो जायेगा . यदि आपकी 'अहिंसा' मे ताकत होगी, तो शेर - बकरी भी एक घाट पर पानी पियेंगे . तो प्रश्न वास्तव मे शक्ति का ही है .
                      भीष्म पितामह का उदाहरण याद आ रहा है . जब तक वो संभल पाते, तब तक लगता है की वो कौरवों का इतना ज्यादा अन्न खा चुके थे की उनकी बुद्धि 'भ्रष्ट' हो गयी थी. ये बात उन्होंने द्रौपदी को अपने अंतिम समय मे बताई भी थी. आप सोचिये की उनके जैसा चरित्रवान, भक्त और तेजस्वी व्यक्ति भी किसी खोखले प्रण की खातिर, पता नहीं किस मजबूरी मे एक अबला की इज्जत की रक्षा करने से पीछे हट गए व अधर्म के पक्ष मे युद्ध किया शायद कौरवों के अन्न की शक्ति जिसे वो हमेशा लेते रहे हों, उसमे संचित अवगुणों ने उनकी बुद्धि भ्रष्ट कर दी हो .जब भीष्म पितामह जैसे उच्च कोटि के व्यक्ति का यह हाल हो सकता है तो सामान्य व्यक्ति की क्या गिनती. अतः हमें अपने सत्संस्कारों को मजबूत आधार देना होगा ताकि कुसंस्कार रूपी कोई भूचाल हमारे संस्कारों की जड़ें न उखाड़ सके . खुद को इतना मजबूत बना लेना होगा की हमारे नजदीक आकर दुर्गुणों से युक्त व्यक्ति भी गुणों से युक्त होने लगे और उसके दुर्गुणों का हमारे ऊपर अल्प से अतिअल्प असर हो .क्योंकि हम जिस दुनिया मे रहते है, वो स्वयं ही एक काजल की कोठरी से कम नहीं है, और सयानों के लिए भी यहाँ एक लीक काजर की लगना कोई असामान्य बात नहीं.

Tuesday 15 June, 2010

सत्यमेव जयते या शक्तिमेव जयते

सत्यमेव जयते या शक्तिमेव जयते- सत्य की विजय होती है या शक्ति की ? क्या कमजोर सत्य शक्तिशाली असत्य के विरुद्ध युद्ध में विजयी हो सकता है ? क्या सत्य के विजयी होने के लिए उसका सिर्फ सत्य होना काफी है? क्या सत्य सदैव विजयी होता है? आखिर सत्य क्या है इसका फैसला किस प्रकार होगा ? वास्तविक जीवन में क्या सिर्फ सत्य विजयी होता है या शक्तिशाली असत्य विजयी होता है? क्या है वास्तविक जीवन की सच्चाई? जहाँ तक मेरी दृष्टि जाती है, वहां तक मुझे 'शक्तिमेव जयते ' ही वास्तविक जीवन की सच्चाई प्रतीत होती है । वास्तव में जीवन का सबसे बड़ा सत्य तो यही है की वो व्यक्ति को पल-पल ये सन्देश देती है की अपनी शक्ति को बढाओ, समर्थ बनो, किसी भी प्रकार की कमजोरी को प्रश्रय न दो- क्लैव्यम मा स्म गमः पार्थ । समरथ को नहीं दोष गुसाईं । वीर भोग्या वसुंधरा । प्रकृति सदैव शक्ति को प्रश्रय प्रदान करती है। शक्तिशाली का पक्ष लेती है कमजोर का नहीं । प्रश्न यहाँ सत्य असत्य का कभी पैदा नहीं होता । प्रश्न शक्ति-अशक्ति का पैदा होता है । यदि आप शक्तिशाली हैं तो विजयी होंगे ,कमजोर हैं तो पराजित होंगे-फिर चाहे वो व्यक्ति हो या राष्ट्र? प्रत्येक व्यक्ति और प्रत्येक राष्ट्र को अपनी मजबूती की कीमत मिलती है व अपनी कमजोरी की कीमत चुकानी पड़ती है। Every person n every nation gets the 'prize' for its strength and pays the 'price' for its weakness.
भारत में आदर्शवाद की धुंध इतनी छाई हुई है की वो यथार्थ का सामना ही नहीं करना चाहती। आदर्शवाद के नाम पर वो अपनी कमजोरियों को ढके हुए बैठी है व अपनी कमजोरियों को दूर करना भी नहीं चाहती।