प्रायः यह देखा जाता है कि इंसान अपनी भावनाओं के द्वारा किसी नतीजे तक पहुँचता है और तर्क के द्वारा, एक वकील कि तरह, उस नतीजे या निर्णय को सही सिद्ध करने की कोशिश करता है. इंसान के द्वारा किया गया तर्क उसका सही परिचय नहीं देता, बल्कि उसकी भावनाएं उसका सही परिचय देती हैं. अच्छी भावनाएं अच्छे इंसान होने का परिचायक है, परन्तु अच्छा तर्क करना एक अच्छे इंसान होने का शायद ही स्पष्ट परिचायक हो. किसी का तर्क हमें प्रभावित जरूर कर सकता है, लेकिन हमारे दिलों को नहीं छू सकता. हाँ, किसी कि अच्छी भावनाएं जरूर हमारे दिल को छू जाती हैं. वैसे तर्क और भावना एक दूसरे कि पूरक होती हैं . यदि सही भावना मे सही तर्क न हो, तो इंसान भावनाओं कि बाढ़ मे बहते बहते किसी ऐसे भंवर कि और चला जाता है जहाँ पर डूबना ही उसकी नियति बन जाती है और यदि सही तर्क मे सही भावना न हो, तो भी इंसान सिर्फ अपनी ख़ुशी और अपने सुख के लिए किसी ऐसे रास्ते कि और चल पड़ता है, जहाँ अंत मे ग्लानि और पछतावे के सिवा कुछ नहीं रहता है .
मैंने अक्सर 'तर्क , भावना और विवेक' शब्दों का प्रयोग किया है. क्या फर्क है तर्क और भावना मे ? क्यूँ मैंने कहा है कि तर्क और भावनाएं एक दूसरे कि पूरक है? इसलिए क्यूंकि दोनों के बिना काम नहीं चल सकता. प्रकृति ने मनुष्य को तर्क करने कि क्षमता भी दी है और भावुक होने कि विशेषता भी . तर्क करना दिमाग का काम है और भावुक होना दिल का. एक छोटे से बच्चे को देखकर, उसकी मुस्कुराहट और उछलकूद देखकर किसी भी इंसान के मन मे जो ख़ुशी उत्पन्न होती है, उसको तर्क से कौन समझा सकता है? किसी दुखी इंसान को देखकर के मन मे जो करुणा उत्पन्न होती है, कोई तर्क से उसे समझाने कि कोशिश करे , शायद नहीं समझा पायेगा . अपनी जन्मभूमि से लगाव कि भावना, माँ का बच्चे के प्रति वात्सल्य, मीरा का कृष्ण को पति मानने कि भावना, रिश्तों को रिश्ता मानने कि भावना, प्रेम, घृणा, पूर्वाग्रह कि भावना, अपने को उच्च समझने कि भावना, स्वयं को निम्न समझने कि भावना ... भावना मे इंसान साबित नहीं करता, वह महसूस करता है. तर्क मे इंसान साबित करता है, महसूस कम. क्रौंच पक्षी को मरते देखकर आदिकवि वाल्मीकि के मन मे जो करुणा और व्यथा उत्पन्न हुई होगी, उसे कौन किसी दुसरे इंसान को 'समझा' सकता है? 'म़ा निषाद प्रतिष्ठाम त्वमगमः ' कहते हुए उनके मन मे व्याध के लिए उत्पन्न क्रोध की भावना को तर्क से कौन समझाए? ये महसूस करने वाली बातें हैं, साबित करने वाली कम. 'वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान'. उस वियोगी कवि के मन मे उठने वाली भावना को हम भावना से ही महसूस कर सकते हैं, तर्क के माध्यम से नहीं. इंसान को सम्मान और प्यार मिलता है तो उसकी अच्छी भावनाओं के कारण. इंसान को नफरत और हिकारत मिलती है, तो उसकी बुरी भावनाओं के कारण. भावना और तर्क मे भावना का महत्व प्रथम है, तर्क का काम तो भावना के बाद होता है .
पर क्या भावना ही सब कुछ है ? भावना तो पशुओं मे भी होती है. उनका भी समाज होता है. तो फिर इंसान और पशु मे फर्क कहाँ पैदा होता है ? पैदा होता है इंसान कि तर्क करने कि विशिष्ट क्षमता के विकसित होने के कारण. तर्क एक ऐसी क्षमता है जो साबित करती है . तर्क करना दिमाग का काम है , दिल का नहीं. तर्क फायदे या नुकसान के विषय मे सोचता है, भावना फायदा या नुकसान नहीं देखती है और देखती है तो शायद वो भावना नहीं है, वो कहीं न कहीं तर्क है. प्रायः भावना ही लक्ष्य का निर्धारण करती है और तर्क उस तक पहुँचने का मार्ग तलाशता है. भावना द्वारा निर्धारित लक्ष्य को किस मार्ग से किस तरह प्राप्त किया जाए, ये तर्क ही बताता है. दो इंसानों के मन मे देशप्रेम कि भावना जगी, दोनों ने अपने अपने तर्क का सहारा लिया, तर्क ने उन्हे रास्ता दिखाया, उनकी मदद की और कोई भगत सिंह बन गया और कोई महात्मा गाँधी. जिसके तर्क ने जिसको जैसा रास्ता दिखाया, वो वैसा ही बन गया. इसके पीछे मूल प्रेरणा भावना थी, तर्कों का अलग अलग होना या यूँ कह लीजिये कि रास्तों का अलग होना ही ने किसी को कुछ और किसी को कुछ बना दिया. रास्तों के अलग-अलग होने, अहिंसा या हिंसा का अलग अलग माध्यम किसी सामान उद्देश्य कि प्राप्ति हेतु अपनाने के बावजूद यदि हम भगत सिंह और महात्मा गाँधी को सम्मान और प्यार देते हैं, तो सिर्फ इस कारण क्योंकि दोनों कि भावनाएं अच्छी थी. अच्छी भावनाएं, हाँ, सिर्फ अच्छी भावनाएं अच्छे इंसान का परिचायक होती हैं. तर्क तो आप जैसा चाहे, आपकी भावना आपसे करा लेगी. जिस तरह से मुवक्किल को वकील कि जरुरत रहती है, अपने पक्ष को सही साबित करने के लिए, उसी तरह से भावना को तर्क कि आवश्यकता होती है, स्वयं को आधार देने और सही साबित करने के लिए. इसलिए दोनों एक दूसरे की पूरक हैं .
अब आते हैं विवेक पर. विवेक तर्क और भावना को नियंत्रित करने वाली सत्ता है. विवेक भावना और तर्क को संतुलन मे रखने का कार्य करता है. कब भावना का इस्तेमाल करना है और कब तर्क का- ये विवेक बतलाता है. विवेक कर्त्तव्य का ज्ञान कराता है. सही या गलत तर्क या भावना को विवेक परखता है. जब तर्क आउट ऑफ़ कण्ट्रोल हो तो तर्क पर भावना का ब्रेक लगता है और जब भावना आउट ऑफ़ कण्ट्रोल हो तो उस पर तर्क का ब्रेक लगता है. ब्रेक लगाने का काम विवेक करता है. विवेक तर्क और भावना के मध्य सामंजस्य स्थापित करता है. सामंजस्य ब्रेक लगाकर ही करता है. मेरी भावुकता कहीं मुझे बहाकर न ले जाए, इसलिए तर्क का ब्रेक लगाना पड़ता है और तर्क करते हुए मै स्वार्थी न हो जाऊं इसलिए भावना का ब्रेक लगाना पड़ता है ,.
शायद इसीलिए ये भी कहा जाता है कि '' जब नाश मनुज पर छाता है, सबसे पहले विवेक मर जाता है''. विवेक ख़त्म होने पर व्यक्ति का मानसिक संतुलन ख़त्म हो जाता है क्यूंकि उसकी या तो भावना अनियंत्रित हो जाती हैं या फिर तर्क. जब तर्क और भावना के मध्य अंतर्विरोध हो, तो निर्णय करने का, सामंजस्य स्थापित करने का काम विवेक ही करता है. विवेक तत्कालीन परिस्थितियों मे सदैव यथासंभव सर्वोत्तम, आवश्यक, उचित और सबकी बेहतरी का मार्ग तलाशता है. चूँकि विवेक ही कर्त्तव्य का ज्ञान कराता है, शायद इसीलिए ये कहा जाता है कि व्यक्ति को सदैव अपने विवेक से कार्य करना चाहिए.
अस्तु, ये उचित प्रतीत होता है की व्यक्ति सदैव अपने इश्वर प्रदत्त विवेक से अपने ''कर्त्तव्य अर्थात किये जाने चाहिए योग्य कर्म'' का निर्धारण करे व तदनुरूप अपने कर्तव्यों का निर्वहन करे .
तर्क, भावना और विवेक पर एक शब्द जोड़ रहा हूं, नियंत्रण... नहीं बल्कि सहज और स्वाभाविक संतुलन. मानवीय सभी चित्त वृत्तियां, जो विविधता रचती हैं, वही सुंदर और आकर्षक होता है. क्रमशः बेहतर पोस्ट के लिए बधाई.
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